Saturday, January 30, 2021

आइये जानते हैं कौन थे नकुल और सहदेव?

नकुल और सहदेव महाराज पाण्डु तथा माद्री के जुड़वां संतान थे। कहते हैं महारानी कुन्ती के तीनों पुत्रों के जन्म के पश्चात रानी माद्री को भी संतान प्राप्ति की इच्छा हुई। तत्पश्चात् महारानी कुन्ती ने उन्हें किसी देवता का ध्यान करने को कहा। कुन्ती के आदेश पर माद्री ने अश्विनी कुमारों का ध्यान किया।  वरदान स्वरूप उन्हें जुड़वां संतान की प्राप्ति हुई माद्री मद्र राज शल्य की बहन  थी। 

नकुल अत्यंत पराक्रमी तथा खूबसूरत थे। नकुल सहदेव से बड़े थे। नकुल को धर्म, नीति और चिकित्सा का बड़ा ज्ञान प्राप्त था। नकुल तलवारबाजी और घुड़सवारी में दक्ष थे। अज्ञातवास के दौरान नकुल विराट में 'ग्रंथिक' नाम से जाने जाते थे। जो कि घोडों की देखभाल करते थे। 

सहदेव पांचों पाण्डवों में सबसे छोटे थे। सहदेव को धर्मशास्त्र, चिकित्सा तथा ज्योतिष के ज्ञानी थे।  अज्ञातवास के दौरान इन्होंने भी विराटनगर में पशुओं की देखभाल का अनुभव किया था। कहा जाता है तो सहदेव को भविष्य को भी समझने का ज्ञान था। 

 लेखन :मिनी 

भीम कौन थे?

परम शक्तिशाली, वीर योद्धा, जिसके बाहुओं में सहस्त्र बल था।  जिसने नर्मदा नदी के प्रवाह तक को रोक लिया था। जिसने हिडिंब जैसे शक्तिशाली राक्षस का वध किया।  वह कोई और नहीं पाण्डु पुत्र भीम ही थे।  भीम महाराज पाण्डु तथा माता कुन्ती के पुत्र थे जो महाभारत काल के परम शक्तिशाली योद्धाओं में गिने जाते थे। पवन देव का आह्वान करके माता कुन्ती ने इन्हें प्राप्त किया था। ये युधिष्ठिर के कनिष्ठ भ्राता थे। वरदान स्वरूप इनकी भुजाओं में दस हजार हाथियों का बल था। भीमसेन ने ही राक्षस हिडिंब के उत्पात को खत्म कर उसे चिर निंद्रा में सुला दिया था। इसके पश्चात हिडिंब की बहन हिडिम्बा से भीम का विवाह सम्पन्न हुआ था।  भीमसेन को हिडिम्बा से एक शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति हुई थी जिसको घटोत्कच के नाम से जाना जाता है। भीमसेन ने अभिमानी जरासंध का भी वध किया था। उन्होंने अकेले ही धृतराष्ट्र के सहस्त्र पुत्रों को मृत्यु लोक तक पहुंचा दिया था। भीमसेन ने दुष्ट कीचक को भी उसके कुकर्मों की सजा दी। बचपन में ही एक बार ईर्ष्यावश शकुनि के षड्यंत्र में दुर्योधन ने भीम को विष देकर नदी में फेंक दिया था। भीम जल में बह कर नागलोक पहुंच गये।  वहाँ नागों के डसने से उनका विष उतर गया। मूर्छा हटने पर भीम ने नागों पर प्रहार कर दिया। वासुकी तथा नागराज आर्यक (जो कि भीम के नाना के नाना थे) ने भीम को पहचान लिया और प्रसन्न होकर भीम को कुण्डों (आठ कुण्ड) का जल पीने को दिया। इतिहास भीम को वृकोदर आदि नाम से भी पुकारता है। कहते हैं कि भीम के पेट में वृक नामक अग्नि थी। जिससे कारण उन पर विष वगैरह का कोई असर नहीं होता इसी कारण वह वृकोदर कहलाये।

लेखन :मिनी

जानें धनुर्धर अर्जुन की शूरवीरता को


शूरवीर कर्तव्य निष्ठ वह था परम शिष्य द्रोणाचार्य का, श्रीकृष्ण सखा, इन्द्रियविजित वह नायक था पाण्डव इतिहास का। 
इतिहास के पन्ने अर्जुन की शूरता, धर्मनिष्ठा, कर्तव्यनिष्ठा तथा उदारता की कहानियों से भरे पड़े हैं। अर्जुन की यश और वीरता तीनों लोको में विदित थी। अर्जुन श्रीकृष्ण के परमप्रिय थे। इतिहास अर्जुन को पाण्डवों के नायक के रूप में वर्णित करता है। 
अर्जुन महाराज पाण्डु तथा महारानी कुन्ती के तीसरे पुत्र थे।  इन्द्र के वरदान स्वरूप माता कुन्ती ने अर्जुन को प्राप्त किया था। अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त किया था। अर्जुन गुरु द्रोण के परमप्रिय शिष्य थे। अर्जुन ने हिमालय पर कठोर तपस्या की थी।  अर्जुन की परीक्षा लेने के विचार से भगवान शिव किरात वेश में आये थे तत्पश्चात दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। अर्जुन की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने अर्जुन को 'पाशुपतास्त्र' प्रदान किया। अर्जुन ने अग्नि से 'गांडीव धनुष' तथा 'अक्षय तूणीर' प्राप्त किया| गन्धर्व राज चित्रसेन ने नृत्य विद्या का भी ज्ञान प्राप्त किया था। जो कि अज्ञातवास के दौरान विराट नगर में 'भृंगला' नाम से राजा विराट के महल में नृत्य की शिक्षा देते थे। 
भीष्म पितामह स्वयं कहते थे, 'वीरता, स्फूर्ति, ओज, तेज, शस्त्र कुशलता और अस्त्र ज्ञान में अर्जुन के समान कोई नही।'
अर्जुन राजा द्रुपद के स्वंवर की शर्त को पूरा कर द्रुपद कन्या द्रोपदी से विवाह किया था। तत्पश्चात माता की आज्ञानुसार पांचों भाइयों का विवाह द्रोपदी के साथ सम्पन्न हुआ। अर्जुन का दूसरा विवाह श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ सम्पन्न हुआ था। वीर अभिमन्यु अर्जुन तथा सुभद्रा के ही पुत्र थे। विभिन्न ग्रंथों में अर्जुन के और भी कई विवाह के उल्लेख मिलते हैं। 
लेखन : मिनी

Thursday, January 28, 2021

आइये जानते हैं हस्तिनापुर के परमशील पाण्डु ज्येष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर के बिषय में

अद्भुत, अनुपम क्षमाशील, परमज्ञानी, युद्ध कौशल में पारंगत, पाण्डु ज्येष्ठ, धर्मश्रेष्ठ, पाण्डु पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर जैसे सहनशील योद्धाओं के इतिहास से सजी हुई है ये भारत भूमि। जहाँ युधिष्ठिर जैसे धर्मनिष्ठ  ने जन्म लेकर इस भूमि की महत्ता को उच्च शिखर प्रदान किया। 

धर्मराज युधिष्ठिर हस्तिनापुर के न्याय प्रिय और प्रजाप्रिय सम्राट थे, जिन्होंने सदैव धर्म का पालन किया और सत्य के रास्ते अपने कर्तव्य को फलीभूत किया। 

धर्मराज युधिष्ठिर महाराज पाण्डु तथा महारानी कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र थे। जिन्होंने भरत वंश की कीर्ति को एक नयी ज्योति प्रदान की। माता कुन्ती ने धर्मराज का आह्वान करके इन्हें प्राप्त किया था इसलिए इन्हें धर्मराज का पुत्र कहते हैं। 

युधिष्ठिर बचपन से ही अपने काकाश्री विदुर और पितामह महामहिम भीष्म से प्रभावित थे। और धार्मिक क्षवि वाले व्यक्ति थे। उन्हें कृपाचार्य ने राजनीति तथा द्रोणाचार्य ने शस्त्र विद्या में निपुण किया था। ऐसे महान व्यक्तियों से शिक्षा पाकर युधिष्ठिर अपने कौशल में और भी पारंगत हो गये थे। 

महाराज युधिष्ठिर एक आदर्श पुत्र थे उन्होंने सदैव अपनी माता तथा अपने बडो़ की आज्ञा का पालन किया। माता की आज्ञा की वजह से ही उन्होंने अपने भाइयों सहित द्रोपदी से विवाह किया था। 

कौरवों द्वारा बार बार अपमानित होने पर भी उन्होंने सदैव अपने भाइयों को शांत रहने की आज्ञा दी।  दुर्योधन की प्रत्येक गलतियों को सदैव क्षमा करते रहे वरणावत में दुर्योधन के षड्यंत्र को चुपचाप सहन किया और अपने भाइयों सहित जान बचाकर चुपचाप वन की ओर चले गए। 

धर्मराज युधिष्ठिर ने खाण्डवप्रस्थ में इन्द्रप्रस्थ नामक एक सुंदर नगर बसाया। जहाँ पर राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। समस्त भारतवर्ष के सभी राजागण तथा मंत्रीगण इस यज्ञ में सम्मिलित हुए। 

धूर्त क्रीड़ा में अपना सबकुछ यहाँ तक की अपनी पत्नी और भाइयों को भी हार जाने के बावजूद चुपचाप दुर्योधन के अपमान को सहते रहे। और शान्तिपूर्ण बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञात वास स्वीकार कर लिया। अज्ञातवास के दौरान विराटनगर में राजा विराट के सेवक के रुप में काम किया। अपने भाइयों तथा पत्नी को ऐसी दशा में देखकर क्या उनका मन तनिक भी द्रवित न हुआ होगा।  लेकिन अपने धर्म तथा स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्होंने अनेक कष्टों को सहा। वनवास के दौरान गन्धर्वों द्वारा दुर्योधन तथा हस्तिनापुर की स्त्रियों के बंधक बनाये जाने पर युधिष्ठिर ने स्वयं अपने धर्म तथा वंश की रक्षा के लिए अर्जुन को मदद का आदेश दिया। धन्य हैं ऐसे क्षमाशील नर। 

यक्ष द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देकर इन्होंने अपनी बुद्धिमता का परिचय दिया फलस्वरूप प्रसन्न होकर यक्ष ने किसी एक भाई को जीवित करने की बात कही तब धर्मराज ने बड़े ही शालीनता से माता माद्री के एक पुत्र के जीवन को मांगा जिससे युधिष्ठिर की धर्मनिष्ठा तथा विद्वता का स्पष्ट परिचय मिलता है। 

जब वनवास की अवधि पूरी हो गयी तो दुर्योधन ने युधिष्ठिर के राज्य को वापस करने से इंकार कर दिया। युधिष्ठिर ने शांति से अपने राज्य को प्राप्त करने के प्रयास किए लेकिन जब वे विफल रहे तो युद्ध का मार्ग अपनाया। 

युधिष्ठिर ने अपने जीवन में एकमात्र पाप किया था जो कि महाभारत युद्ध के 15वें दिन बोला गया आधा झूठ। 

युद्ध के पश्चात 36 वर्षों तक युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर के सम्राट के रूप में हस्तिनापुर की सेवा की। उन्होंने कृष्ण और व्यास की आग्रह पर अश्वमेध यज्ञ किया। 


Tuesday, January 26, 2021

महाभारत युद्ध मे संजय कौन थे

संजय महर्षि वेदव्यास जी के शिष्य थे। वे धृतराष्ट्र की राज्यसभा के सम्मानित सदस्यों में से एक थे। ये विद्वान गावाल्गण नामक सूत के पुत्र थे। संजय विनम्र और धार्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे। कहा जाता है कि, संजय श्रीकृष्ण के परमभक्त थे। संजय सदैव महाराज धृतराष्ट्र को सलाह मशवरा देते रहते थे और समय समय पर धृतराष्ट्र पुत्रों के अनैतिक कार्यों के प्रति सचेत करते रहते थे।  संजय सत्य के पक्षधर थे। 

संजय को श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा दिव्य दृष्टि का वरदान प्राप्त था।  संजय ने सम्पूर्ण महाभारत युद्ध को स्वंय अपनी दिव्य दृष्टि से देखा था और महाराज धृतराष्ट्र को सम्पूर्ण युद्ध वृतांत कह सुनाया था। 

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश भी संजय ने स्वयं श्रवण किया था। संजय ने अपनी दिव्य दृष्टि से श्रीकृष्ण के विराट स्वरुप का भी दर्शन किया था।

महाभारत युद्ध के पश्चात संजय युधिष्ठिर के राज्य में निवास करते थे। धृतराष्ट्र, गांधारी तथा कुन्ती के साथ इन्होंने भी सन्यास धर्म को ग्रहण कर लिया था।  पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार धृतराष्ट्र की मृत्यु के पश्चात संजय हिमालय की ओर चले गए थे।

लेखन : मिनी

 

महाभारत के पात्रो के बारे मे जानिए


महाराज शांतनु  

भीष्म पितामह महाराज पाण्डु धृतराष्ट्र कुन्ती और गांधारी विदुर संजय कौन थे पांडव :--
द्रोपदी कौन थी दानवीर कर्ण का परिचय भगवान श्रीकृष्ण

महर्षि वाल्मीकि का जीवन परिचय


भारत ऋषि-मुनियों और संतों तथा महान पुरुषों का देश रहा है। भारत की भूमि पर अनेक परमवीर और पराक्रमीयों ने जन्म लेकर भारत की भूमि को गौरवान्वित किया है। भारत की विद्वता इसी बात से सिद्ध होती है कि भारत को सोने की चिड़िया और विश्व गुरु आदि नाम से भी जाना जाता है। यही कारण है कि भारत की शिक्षा, ज्ञान का अनुकरण देश-विदेश में किया जाता रहा है। आदिकाल से ही भारत – भूमि पर ऐसे ऐसे महाकाव्य अथवा ग्रंथों की रचना हुई है, उसके समानांतर कोई दूसरा साहित्य भी नहीं है।

वाल्मीकि जी कि रामायण के रचियता थे, इनकी महान रचना से हमें महाग्रन्थ रामायण का सुख मिला। यह एक ऐसा ग्रन्थ हैं जिसने मर्यादा, सत्य, प्रेम, भातृत्व, मित्रत्व एवम सेवक के धर्म की परिभाषा सिखाई। वाल्मीकि जी संस्कृत भाषा के आदि कवि और आदि काव्य ‘रामायण’ के रचयिता के रूप में सुप्रसिद्ध हैं।

वाल्मीकि ऋषि वैदिक काल के महान ऋषि बताए जाते हैं। धार्मिक ग्रंथ और पुराण अनुसार वाल्मीकि नें कठोर तप अनुष्ठान सिद्ध कर के महर्षि पद प्राप्त किया था। परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा और आशीर्वाद पाकर वाल्मीकि ऋषि नें भगवान श्री राम के जीवनचरित्र पर आधारित महाकाव्य रामायण की रचना की थी। ऐतिहासिक तथ्यों के मतानुसार आदिकाव्य श्रीमद वाल्मीकि रामायण जगत का सर्वप्रथम काव्य था। महर्षि वाल्मीकि नें महाकाव्य रामायण की रचना संस्कृत भाषा में की थी। वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए परन्तु वे एक ज्ञानी केवट थे, वे कोई ब्राह्मण नही थे

वाल्मीकि ऋषि का  बचपन –

माना जाता है कि वाल्मीकि जी महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र प्रचेता की संतान हैं उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था बचपन में उन्हे एक भील चुरा ले गया था। जिस कारण उनका लालन-पालन भील प्रजाति में हुआ। इसी कारण वह बड़े हो कर एक कुख्यात डाकू – डाकू रत्नाकर बने और उन्होंने जंगलों में निवास करते हुए अपना काफी समय बिताया।

रत्नाकर से वाल्मीकि तक का सफर –

भील प्रजाति में पले-बढ़े रत्नाकर राजा के राज्य में सैनिक हुआ करते थे। साथी सैनिकों का युद्ध बंदियों के साथ अच्छा आचरण न होने के कारण रत्नाकर ने विद्रोह किया। इस विद्रोह में उनके राजा ने सीधी शत्रुता मोल ली और रत्नाकर को दंड देने के लिए घोषणा की जिसके कारण उन्हें जंगल में छिपकर रहना पड़ा। अपनी आजीविका चलाने के लिए उन्हें राहगीरों से लूटपाट करना पड़ता था। यही उनके नाम के पहले डाकू शब्द लगने का कारण था। डाकू रत्नाकर लोगों को लूट कर अपना गुजारा करते थे। कई बार वह लोगों की हत्या भी कर देते थे। इसी पाप कर्म में लिप्त रत्नाकर जब एक बार जंगल में किसी नए शिकार की खोज में थे तब उनका सामना मुनिवर नारदजी से हुआ। रत्नाकर नें लूटपाट के इरादे से नारद मुनि को बंदी बना लिया। तब नारदजी नें उन्हे रोकते हुए केवल एक सवाल पूछा, “यह सब पाप कर्म तुम क्यों कर रहे हो?” इस सवाल के उत्तर में रत्नाकर नें कहा कि ह यह सब अपने परिवारजन के लिए कर रहा है। तब नारद मुनि बोले –“क्या तुम्हारे इस पाप कर्म के फल भुगतान में भी तुम्हारे परिवारजन तुम्हारे हिस्सेदार बनेंगे?” इसपर रत्नाकर नें बिना सोचे ‘हां’ बोल दिया। तब नारद जी नें रत्नाकर से कहा की एक बार अपने परिवार वालों से पूछ लो, फिर में तुम्हें अपना सारा धन और आभूषण स्वेच्छा से अर्पण कर के यहाँ से चला जाऊंगा। रत्नाकर नें उसी वक्त अपने एक-एक स्वजन के पास जा कर, अपने पाप का भागीदार होने की बात पूछी। लेकिन किसी एक नें भी हामी नहीं भरी। इस बात से डाकू रत्नाकर को बहुत दुख हुआ और आघात भी लगा। इसी घटना से उसका हृदय परिवर्तन हो गया। रत्नाकर नें इस प्रसंग के बाद पाप कर्म त्याग दिये और जप तप का मार्ग अपना लिया। फिर कई वर्षों की कठिन तपस्या के फल स्वरूप उन्हे महर्षि पद प्राप्त हुआ।

महर्षि वाल्मीकि जयंती महोत्सव

देश भर में महर्षि वाल्मीकि की जयंती को श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस अवसर पर शोभायात्राओं का आयोजन भी होता है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित पावन ग्रंथ रामायण में प्रेम, त्याग, तप व यश की भावनाओं को महत्व दिया गया है। वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना करके हर किसी को सद्‍मार्ग पर चलने की राह दिखाई। इस अवसर पर वाल्मीकि मंदिर में पूजा अर्चना भी की जाती है तथा शोभायात्रा के दौरान मार्ग में जगह-जगह के लोग इसमें बडे़ उत्साह के साथ भाग लेते हैं। झांकियों के आगे उत्साही युवक झूम-झूम कर महर्षि वाल्मीकि के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। महर्षि वाल्मीकि को याद करते हुए इस अवसर पर उनके जीवन पर आधारित झांकियां निकाली जाती हैं व राम भजन होता है।

भारतीय संस्कृति के सत्य स्वरूप का गुणगान करने, जीवन का अर्थ समझाने, व्यवहार की शिक्षा से ओत-प्रोत ‘वाल्मीकि-रामायण’ एक महान् आदर्श ग्रंथ है। उसमें भारतीय संस्कृति का स्वरूप कूट-कूट कर भरा है। आदिकवि भगवान वाल्मीकि जी ने श्रीराम चंद्र जी के समस्त जीवन-चरित को हाथ में रखे हुए आंवले की तरह प्रत्यक्ष देखा और उनके मुख से वेद ही रामायण के रूप में अवतरित हुए।

वेद: प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना॥

‘रामायण कथा’ की रचना भगवान वाल्मीकि जी के जीवन में घटित एक घटना से हुई।

” मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥”

एक बार महर्षि वाल्मीक एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा। इस श्लोक के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि ने क्रौंच का शिकार करने वाले व्यक्ति को श्राप दिया।

यह श्लोक महर्षि के मन मस्तिष्क में सदैव गुंजायमान रहा क्योंकि उन्होंने आज से पूर्व उन्होंने इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। जब प्रत्येक शब्द का गणना किया गया तो 8-8 अक्षरों से यह छंद बंद हो गया।  जिसे लय दिया जाना सुलभ हो गया। इसको गाया जा सकता था और उच्च स्वर में वाचन भी किया जा सकता था। महर्षि को यह ज्ञात था कि उन्हें राम के जीवन पर महाकाव्य की रचना करनी है। उन्हें रचना करने की विधि ज्ञात नहीं थी, इस छंद के माध्यम से उन्होंने पूरे महाकाव्य की रचना ब्रह्मा जी के मार्गदर्शन से की।

ब्रह्मा जी ने स्वयं महर्षि बाल्मीकि को आश्रम में प्रकट होकर उन्हें राम–सीता के जीवन में होने वाले घटनाओं को करुण रस में लिखने को कहा। इससे पूर्व अनेक रसों में यह घटना घट चुकी थी, आगे की घटना करुण रस प्रधान थी। जिसमें सीता-राम के विरह की वर्णन को जीवंत रूप देना था। आगे की सभी घटनाएं बिरह अवस्था में व्यतीत करनी थी, जिसमें करुण रस की प्रधानता थी। इस करुण रस में भी उन्होंने मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। सीताराम ने कभी भी अपने मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया कितनी ही परिस्थितियां उनके विपरीत रही।

लेखन : चांदनी 




Monday, January 25, 2021

विदुर कौन थे?

विदुर महाभारत के केन्द्रीय पात्रों में से एक थे। वे हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री थे तथा धृतराष्ट्र और पाण्डु के भाई थे। 

विदुर का जन्म भी वेदव्यास के वरदान स्वरूप हुआ था, लेकिन इनकी माता एक दासी थीं। 

महात्मा विदुर को धर्मराज का अवतार भी माना जाता है। कहते हैं कि मांडव्य ऋषि ने धर्मराज को श्राप दे दिया था इसी कारणवश सौ वर्ष पर्यंत शूद्र बनकर रहे। 

राजा देवक के यहाँ एक अनुपम सुन्दरी दासी कन्या थी जिसके साथ महामहिम भीष्म ने विदुर का विवाह सम्पन्न कराया था। 

महात्मा विदुर धर्म और नीति के ज्ञानी थे। इन्होंने स्वयं सदा सत्य का साथ दिया।  कौरव तथा पाण्डवों के आपसी द्वेष को देखते हुए इन्होंने सदैव महाराज धृतराष्ट्र को सचेत किया था। पर पुत्र प्रेम में अंधे धृतराष्ट्र को सत्य असत्य का बोध कहाँ।  विदुर ने सदैव धृतराष्ट्र पुत्रों के षड्यंत्र से पाण्डु पुत्रों की रक्षा की थी। कुल वधू द्रोपदी के अपमान की भी उन्होंने निंदा की थी और राज्य सभा का त्याग कर दिया था। 

महात्मा विदुर ने ही धृतराष्ट्र और माता गांधारी को वानप्रस्थ की आज्ञा दी थी। महात्मा विदुर ने सभी तीर्थ स्थलों का भ्रमण किया था।  युधिष्ठिर के अनुरोध पर उन्होंने अपनी तीर्थ यात्रा का वर्णन सुनाया था। 

लेखन : मिनी

जानते हैं महारानी कुन्ती और गांधारी के विषय में।

यदुवंशी राजा शूरसेन की पृथा नामक सुन्दर कन्या थी जिसे उन्होंने अपनी बुआ के सन्तान हीन पुत्र कुन्तिभोज को गोद दे दिया था।  पृथा (कुन्ती) के विवाह योग्य होने पर कुन्तिभोज ने उसका स्वयंवर रचाया।  उस स्वयंवर में कुन्ती ने वीरवर पाण्डु को अपने वर के रूप में चुना।  कुन्ती को महर्षि दुर्वासा ने आशीर्वाद दिया था कि ,'वो किसी भी देवता का आह्वान करके पुत्र की प्राप्ति कर सकती हैं। ' जब महारानी कुन्ती को महाराज पाण्डु के श्राप के बारे में पता चला तो उन्होंने अपने वरदान का उपयोग कर पुत्र की प्राप्ति की। युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन महारानी कुन्ती के ही पुत्र थे। 

महारानी गांधारी गांधार नरेश की गुणवान पुत्री थी।  महारानी गांधारी को सौ पुत्रों की माता होने का वरदान प्राप्त था। 

जब महामहिम भीष्म को गांधारी और उनके वरदान के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होंने यह निश्चय किया कि यह कन्या धृतराष्ट्र के लिए उपर्युक्त रहेगी और उन्होंने गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र के साथ सम्पन्न कराया। 

गांधारी को जब इस तथ्य का पता चला कि उनके होने वाले पति जन्मान्ध है तो उन्होंने स्वयं अपने आंखों पर पट्टी बाँध कर अपने पत्नी धर्म का पालन किया| गांधारी के इस त्याग के फलस्वरूप उन्हें तेज की प्राप्ति हुई जिसका उपयोग उन्होंने महाभारत युद्ध में दुर्योधन की रक्षा हेतु किया था पर मूर्ख दुर्योधन माता की आज्ञा का उल्लंघन करते हुये मधुसूदन के भ्रम जाल में फंस गया। 

वरदान के फलस्वरूप महारानी गांधारी को सौ पुत्रों की प्राप्ति हुई इनकी एक कन्या भी थी जिसका विवाह सिन्धु राज  के साथ सम्पन्न हुआ था। महारानी गांधारी के सौ पुत्र तो थे पर अफसोस उन्हें धर्म और नीति का तनिक भी ज्ञान था।  वे सभी अपने वंश के नाश का कारण बनें। 

लेखन : मिनी 

Sunday, January 24, 2021

आइये जानते हैं कौन थे धृतराष्ट्र ?

बात जब महाभारत कालीन पात्रों की हो तो इसमें धृतराष्ट्र का नाम न शामिल हो भला ऐसा संभव हो सकता है क्या ? धृतराष्ट्र राजा शांतनु तथा सत्यवती के प्रपौत्र थे।  इनके पिता विचित्रवीर्य तथा माता अम्बिका थी।  वेदव्यास के वरदान स्वरूप धृतराष्ट्र का जन्म हुआ था, जो कि जन्मान्ध थे। 

इनके जन्मान्ध होने की वजह से ही विदुर की सलाह पर धृतराष्ट्र के छोटे भाई पाण्डु को उत्तराधिकारी बनाया।  लेकिन पाण्डु की मृत्यु के पश्चात धृतराष्ट्र को राजगद्दी मिली। 

धृतराष्ट्र का विवाह गांधार राज की कन्या गांधारी से सम्पन्न हुआ जिन्हें सौ पुत्रों की माता होने का वरदान प्राप्त था। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे पर अफसोस उन सभी को धर्म और नीति का तनिक भी ज्ञान न था। 

धृतराष्ट्र ने भी अपने भतीजों के साथ कभी भी मधुरता का व्यवहार नहीं किया था। महाभारत युद्ध में धृतराष्ट्र का अतुलनीय योगदान था। जीवन के अंत में वानप्रस्थ ग्रहण कर गृह त्याग दिया। 

लेखन : मिनी

कौन थे महाराज पाण्डु?

महाराज पाण्डु विचित्रवीर्य तथा अम्बालिका के पुत्र थे।  इनका जन्म भी वेदव्यास के वरदान स्वरूप हुआ था।  ये धृतराष्ट्र के छोटे भाई थे।  धृतराष्ट्र के जन्मान्ध होने के कारणवश पाण्डु को राजगद्दी मिली। 

महाराज पाण्डु के दो विवाह हुए थे पहला कुन्तीभोज की कन्या पृथा (कुन्ती) के साथ सम्पन्न हुआ था और दूसरा मद्र राज शल्य की बहन माद्री के साथ सम्पन्न हुआ। महाराज पाण्डु के पांच पुत्र थे जिन्हें पांच पांडव कहा जाता है।  युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन कुन्ती के पुत्र तथा नकुल और सहदेव माद्री पुत्र थे। 

कहा जाता है कि एक बार महाराज पाण्डु वन विहार कर रहे थे हिर की आशंका में उन्होंने बाण चलाया और उनका बाण इक ऋषि को जा लगा जो अपनी पत्नी के साथ वन में मौजूद थे।  मुनि ने महाराज पाण्डु को श्राप दिया कि अगर तुम कभी भी काम के वशीभूत होगे तो तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी, जैसे की मेरी हुई है। 

एक बार महाराज पाण्डु तथा माद्री स्वयं को वश में न कर सके और कामवासना कर बैठे, अतः श्राप के कारण महाराज पाण्डु की मृत्यु हो गयी। 

लेखन : मिनी

Saturday, January 23, 2021

आइये जानते हैं कौन थे भीष्म पितामह ?

दोस्तों, हमने सबने टीवी पर महाभारत जरूर देखी है। बचपन से लेकर आज तक अपने बड़े बुजुर्गों से महाभारत की कहानियों को सुना है। कुछ ने स्वयं महाभारत पढ़ी है। आइये हम जानते हैं पितामह भीष्म के विषय में जिनके त्याग और बलिदान की कहानी है सदियों पुरानी। 

देवव्रत यानी भीष्म पितामह कुरू वंश के वीर और प्रतापी राजा महाराज शांतनु के पुत्र और महाराज प्रतीप के प्रपौत्र थे। भीष्म ने भरत वंश की गरिमा और हस्तिनापुर के स्वाभिमान की रक्षा के लिए अतुलनीय योगदान दिया। इनकी माता कोई और नहीं पतित पावनी माँ गंगा थीं, जिन्होंने अपने पुत्र को त्याग और समर्पण की शिक्षा दी।  पितामह भीष्म के त्याग और शौर्य की गाथा युगों युगों तक विद्यमान रहेगी। 

कहा जाता है कि एक बार महाराज शांतनु निषाद कन्या सत्यवती के रूप एवं सौन्दर्य पर मोहित हो सत्यवती के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा।  सत्यवती के पिता ने विवाह के लिए शर्त रखी कि, 'जब महाराज शांतनु सत्यवती से उत्पन्न पुत्र को हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनाने का वचन देंगे तभी वह अपनी पुत्री का विवाह करेंगे। ' निषाद की इस शर्त से निराश होकर महाराज शांतनु अपने राज्य वापस लौट आये।  लेकिन इसके पश्चात उनकी दशा बहुत ही सोचनीय हो गयी थी।  पिता की इस दशा से हैरान परेशान जब भीष्म का इस तथ्य से सामना हुआ तो उन्होंने स्वयं सत्यवती के पिता से मिलकर उन्हें वचन दिया कि, "मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा। "आप इस बात से निश्चिंत होकर अपनी पुत्री का विवाह मेरे पिता से कर दीजिए। पुत्र के इस त्याग और बलिदान से प्रसन्न होकर पिता ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। 

पितामह भीष्म ने आजीवन हस्तिनापुर की सेवा की।  अपने राज्य की सेवा को ही अपना धर्म माना और अपने कर्तव्य से कभी पीछे नहीं हटे। सत्य के रास्ते से होते हुए अपने कर्तव्य को पूरा किया कहा जाता है कि इन्होंने सत्य को साबित करने के लिए अपने गुरु परशुराम से भी युद्ध किया था। 

आजीवन अपने राज्य की सेवा की।  अपने कर्तव्य को निभाया और वचन पर सदैव अडिग रहे। इनका वचन कहीं न कहीं इनकी कमजोरी बनी। महाभारत के युद्ध में वचनबद्ध होकर सत्य होने के बावजूद पाण्डु पुत्रों का साथ न दे सके। अपने राज्य की रक्षा में अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया। 

महामहिम भीष्म ने भरत वंश की कीर्ति को ही नहीं अपितु वैभव को भी बढ़ाया महामहिम के नेतृत्व में हस्तिनापुर भारत वंश के सबसे शक्तिशाली और वैभव सम्पन्न राज्यों में से एक था। 

लेखन : मिनी 




Friday, January 22, 2021

 

हिन्दू की परिभाषा आचार्य विनोबा भावे के शब्दों मे 

जो वर्णो और आश्रमों की वयवस्था मे निष्ढा रखने वाला गौ-सेवक, श्रतियो (स्त्रीयो) को माता की भांति पूज्य मानने वाला तथा सब धर्मो का आदर करने वाला है, देव मूर्ति की जो अवज्ञा नहीं करता, पुनर्जन्म को मानता है और उससे मुक्त होने की चेष्टा करता है तथा जो सदा सब जीवों के अनुकूल बर्ताव को अपनाता है, वही हिन्दू माना गया हैI हिंसा से उसका चित दुखी होता है, इसलिए उसे हिन्दू कहा गया है I

Thursday, January 21, 2021

जाने कौन थे महाराज शांतनु

महाराज शांतनु कुरु वंश के प्रतापी राजा थे। ये महाराज प्रतीप के पुत्र थे। महाराज प्रतीप की घोर तपस्या के फलस्वरूप शांतनु का जन्म हुआ था।  शान्त पिता के पुत्र होने के कारण इनका नाम शांतनु पड़ा। 

कहा जाता है कि एक बार महाराज प्रतीप गंगा तट पर तपस्या कर रहे थे। उनके रुप सौन्दर्य से मोहित हो कर देवी गंगा उनकी दाहिनी जंघा पर जा बैठी।  महाराज यह देख आश्चर्य में पड़ गये। देवी गंगा ने कहा, 'हे राजन् मैं ऋषि पुत्री गंगा आपसे विवाह की अभिलाषा से आपके पास आयी हूँ।' महाराज प्रतीप ने उत्तर दिया, गंगे तुम मेरी दाहिनी जांघ पर बैठी हो। पत्नी को तो वामांगी होना चाहिए, दाहिनी जांघ तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्र वधु के रूप में स्वीकार करता हूँ। 

तत्पश्चात् महाराज शांतनु ने पुत्र प्राप्ति के लिए कठोर तप किया और उन्हें शांतनु के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। 

युवावस्था में पिता की आज्ञा से महाराज शांतनु ने देवी गंगा से विवाह किया। लेकिन देवी गंगा ने विवाह से पूर्व उनसे यह वचन लिया कि, मैं आपसे विवाह तो करूंगी, लेकिन आपको वचन देना पड़ेगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। 

देवी गंगा से महाराज शांतनु को आठ पुत्र उत्पन्न हुए थे, लेकिन गंगा ने सात पुत्रों को अपने जल में बहा दिया। और महाराज शांतनु कुछ बोल न सके। लेकिन जब आठवें पुत्र की प्राप्ति हुई तो देवी गंगा फिर से वही करना चाह रही थी लेकिन महाराज शांतनु ने वचन भंग करते हुए उन्हें रोका, हे देवी आपने मेरे सात पुत्रों को यूँ ही जल में प्रवाहित कर दिया और मैं चुप रहा लेकिन आप मेरे इस पुत्र को जीवन दान दे दो। महाराज शांतनु के इस वचन भंग से देवी गंगा रूष्ट होकर पुत्र सहित अन्तर्ध्यान हो गयीं। 

तत्पश्चात युवा होने पर अपने पुत्र को लेकर महाराज शांतनु के पास आती हैं और कहती हैं, हे राजन् यह आपका पुत्र देवव्रत है और मैं इसे आपको सौंपती हूँ।  यही देवव्रत महाभारत के इतिहास में भीष्म के रुप में प्रसिद्ध हुए। 

महाराज शांतनु निषाद कन्या सत्यवती के रूप सौन्दर्य पर आसक्त हो गये थे।  महारानी सत्यवती से महाराज शांतनु को चित्रांगदा और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। 

लेखन : मिनी 

Wednesday, January 20, 2021

कोएनराड एल्स्ट का हिदुत्व प्रेम

कोएनराड एल्स्ट एक फ्लेमिश दक्षिण पंथी हिंदुत्व लेखक हैं, जिन्हें आउट ऑफ इंडिया सिद्धांत और हिंदुत्व आंदोलन के समर्थन के लिए जाना जाता है।  कोएनराड एल्स्ट का जन्म एक फ्लेमिश कैथोलिक परिवार में 7 अगस्त 1959 को हुआ था। लेकिन कोएनराड स्वयं को रोमन कैथोलिक न मानकर धर्मनिरपेक्ष मानवता वादी मानते हैं। 
कोएनराड एल्स्ट ने कैथोलिक यूनिवर्सिटी आफ ल्यूवेन में इंडोलाजी, साइनोलाजी और दर्शन में स्नातक किया है। कोएनराड ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी कुछ समय अध्ययन किया। उन्होंने ल्यूवेन से एशियाई अध्ययन में पीएचडी की है। 
 बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में रहने के दौरान, उन्होंने भारत की सांप्रदायिक समस्या की खोज की और नवोदित अयोध्या संघर्ष के बारे में अपनी पहली पुस्तक लिखी। कई बेल्जियम और भारतीय पत्रों के लिए खुद को एक स्तंभकार के रूप में स्थापित करते हुए, वह अक्सर अपने जातीय-धार्मिक राजनीतिक विन्यास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने और हिन्दू और अन्य नेताओं और विचारकों का साक्षात्कार करने के लिए भारत लौट आये। 
एल्स्ट 1992 से 1995 न्यू राइट फ्लेमिश राष्ट्रवादी पत्रिका टेकस्टेन, कोमेन्टरेन एन स्टडीज के संपादक थे, जो इस्लाम की आलोचना पर ध्यान केंद्रित करते थे और फ्लेमिश राष्ट्रवादी सुदूर राजनीति पार्टी व्लामस ब्लोक से सम्बद्ध थे। विवादास्पद ब्लॉक द ब्रसेल्स जर्नल में भी उनका नियमित योगदान रहा। 
इनके द्वारा लिखी गयी प्रमुख पुस्तकें निम्नलिखित है। 
* अयोध्या और उसके बाद हिन्दू समाज से पहले के मुद्दे
* भारत में नकरात्मकता
* पैगम्बर वाद का मनोविज्ञान
* आर्यन आक्रमणवाद पर अद्यतन
* अयोध्या मंदिर के खिलाफ मामला
* कौन हिन्दू है
* अयोध्या द फिनाले- विज्ञान बनाम धर्म निरपेक्षता की बहस। 
एंथोपोलाजिस्ट और पालिटिको - धार्मिक क्षेत्रों के प्रसिद्ध टिप्पणीकार थामस ब्लॉक हेनसेन ने एल्स्ट को एक कट्टरपंथी मुस्लिम विरोधी अनुनय की बेल्जियम कैथोलिक के रूप में वर्णित किया है। जो खुद को हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन के 'साथी यात्री' बनाने की कोशिश करता है। इतिहासकार सर्वपल्ली गोयल ने एल्स्ट को "पोलमिक्स का कैथोलिक व्यवसायी" माना। मीरा नंदा ने उन्हें एक दूर के हिंदू सह फ्लेमिश राष्ट्रवादी के रूप में माना। 
मीरा नंदा ने वायस आफ  इंडिया पर अपने बौद्धिक पूर्वजों के लेखन के शोषण का आरोप लगाया। संजय सुब्रह्मण्यम इसी तरह इस्लामोफ़ोबिया को एल्स्ट और पारंपरिक भारतीय के बीच आम जमीन के रूप में मानते हैं।  एल्स्ट ने मुस्लिम विरोधी होने के आरोपों का का दृढ़ता से खंडन किया है, लेकिन जोर देकर कहा, "समस्या मुस्लिम नहीं बल्कि इस्लाम है। "
 एल्स्ट के काम की सभी  हिन्दुत्व कार्यकर्ताओं और परम्परावादियों ने प्रशंसा की है।  डेविड फ्राले ने उन्हें, "बेल्जियम के सर्वश्रेष्ठ प्राच्यविदों में से एक कहा है। फ्रांस्वा गोटियार, एल्स्ट को भारत के सबसे अधिक जानकार व्यक्तियों में से एक मानते हैं। रमेश नागराव ने उनके काम को नजरअंदाज करने के लिए केवल एक राक्षसी आंकड़े में बदलने के लिए शिक्षाविदों को दोषी ठहराते हुए उनके बेबाक और शानदार शोध के लिए एल्स्ट की प्रशंसा की है। 
लेखन : मिनी 

Friday, January 15, 2021

गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय


गोस्वामी तुलसीदास जी का नाम लेते ही भगवान श्री राम का स्वरुप सामने आ जाता है। तुलसीदास जी ने ही रामचरित मानस की रचना की तुलसीदास जी का जन्म संवत 1589 को हुआ था। माना जाता है कि तुलसीदास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बॉंदा जिले के राजापुर नाम के एक छोटे से गांव में हुआ था। तुलसीदास जी की माता का नाम हुलसी तथा पिता का नाम आत्माराम दूबे था।

तुलसीदास जी का बचपन बड़े ही दुखों में व्यतीत हुआ था। जब तुलसीदास जी बड़े हुए तो उनका विवाह रत्नावली के साथ हो गया। तुलसीदास जी अपनी पत्नी से बहुत ज्यादा प्रेम करते थे। उन्हें अपने इस प्रे्म के कारण एक बार अपनी पत्नी से अपमानित भी होना पड़ा था। जिसके बारे में कहा जाता है कि " लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ता। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत बीता।। अपनी पत्नी की यह बात सुनकर तुलसीदास जी को बड़ा ही दुख हुआ। जिसके बाद उन्होंने प्रभु श्री राम के चरणों में ही अपने जीवन को व्यतीत कर दिया। तुलसीदास जी ने गुरु बाबा नरहरिदास से भी दीक्षा प्राप्त की थी। इनके जीवन का ज्यादातर समय चित्रकूट, काशी और अयोध्या में व्यतीत हुआ था। तुलसीदास जी ने अपने जीवन पर कई स्थानों का भ्रमण किया था और लोगों को प्रभु श्री राम की महिमा के बारे में बताया था। तुलसीदास जी ने अनेकों ग्रंथ और कृतियों की रचना की थी ।  

संत तुलसीदास ने शुरू की तीर्थ यात्रा

भगवान श्री राम के भक्ति में पूरी तरह से डूबे तुलसीदास ने कई सारी तीर्थ यात्रा की और यह हर समय भगवान श्री राम की ही बातें लोगों से किया करते। संत तुलसीदास ने काशी, अयोध्या और चित्रकूट में ही अपना सारा समय बिताना शुरू कर दिया। इनके अनुसार जब उन्होंने चित्रकूट के अस्सी घाट पर रामचरितमानसको लिखना शुरू की तो उनको श्री हनुमान जी ने दर्शन दिए और उनको राम जी के जीवन के बारे में बताया। तुलसीदास जी ने कई जगहों पर इस बात का भी जिक्र किया हुआ है कि वे कई बार हनुमान जी से मिले थे और एक बार उन्हें भगवान राम के दर्शन भी प्राप्त हुए थे। वहीं तुलसीदास ने भगवान राम के साथ हनुमान जी की भक्ति करने लगे और उन्होंने वाराणसी में भगवान हनुमान के लिए संकटमोचन मंदिर भी बनवाया।

राम दर्शन 

तुलसी दास जी हनुमान की बातों का अनुसरण करते हुए चित्रकूट के रामघाट पर एक आश्रम में रहने लगे और एक दिन कदमगिरी पर्वत की परिक्रमा करने के लिए निकले। माना जाता है वहीं पर उन्हें श्रीराम जी के दर्शन प्राप्त हुए थे। इन सभी घटनाओं का उल्लेख उन्होंने गीतावली में किया है।

तुलसीदास जी द्वारा लिखित ग्रन्थ 

श्री रामचरितमानस, सतसई, बैरव रामायण, पार्वती मंगल, गीतावली, विनय पत्रिका, वैराग्य संदीपनी, रामललानहछू, कृष्ण गीतावली, दोहावली और कवितावली आदि है। तुलसीदास जी ने अपने सभी छन्दों का प्रयोग अपने काव्यों में किया है। 

इनके प्रमुख छंद हैं दोहा सोरठा चौपाई कुंडलिया आदि, इन्होंने शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का भी प्रयोग अपने काव्यों और ग्रंथो में किया है और इन्होंने सभी रसों का प्रयोग भी अपने काव्यों और ग्रंथों में किया है ,इसीलिए इनके सभी ग्रंथ काफी लोकप्रिय रहे हैं।

लगभग तीन साल में लिखी रामचरितमानस 

भगवान राम जी के जीवन पर आधारित  महाकाव्य रामचरितमानसको पूरा करने में संत तुलसीदास को काफी सारा समय लगा था और इन्होंने इस महाकाव्य को 2 साल 7 महीने और 26 दिन में पूरा किया था। रामचरितमानस में तुलसीदास ने राम जी के पूरे जीवन का वर्णन किया हुआ है। रामचरितमानस के साथ साथ उन्होंने हनुमान चालीसा की भी रचना की हुई है।

संत तुलसीदास जी की मृत्यु

तुलसीदास  के निधन के बारे में कहा जाता है कि इनकी मृत्यु बीमारी के कारण हुई थी और इन्होंने अपने जीवन के अंतिम पल वाराणसी के अस्सी घाट में बिताए थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय में विनय-पत्रिका लिखी थी और इस पत्रिका पर भगवान राम ने हस्ताक्षर किए थे। इस पात्रिका को लिखने के बाद तुलसीदास का निधन 1623 में हो गया था।

तुलसीदास के द्वारा लिखी गई रचानाएं और दोहे 

  • ·        रामचरितमानस
  • ·        रामलला नहछू
  • ·        बरवाई रामायण
  • ·        पार्वती मंगल
  • ·        जानकी मंगल
  • ·        रामाज्ञा प्रश्न
  • ·        कृष्णा गीतावली
  • ·        गीतावली
  • ·        साहित्य रत्न
  • ·        दोहावली
  • ·        वैराग्य संदीपनी
  • ·        विनय पत्रिका
  • ·        हनुमान चालीसा
  • ·        हनुमान अष्टक
  • ·        हनुमान बहुक

दोहा-1

दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान, तुलसी दया न छोडिये जब तक घट में प्राण।

भावार्थ - धर्म, दया भावना से उत्पन्न होती और अभिमान तो केवल पाप को ही जन्म देता हैं, मनुष्य के शरीर में जब तक प्राण हैं, तब तक उसे दया भावना कभी नहीं छोड़नी चाहिए।

दोहा-2

सरनागत कहूँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि, ते नर पावॅर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि।

भावार्थ - जो इन्सान अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं वे क्षुद्र और पापमय होते हैं। दरअसल, उनको देखना भी उचित नहीं होता।

दोहा-3

मुखिया मुखु सो चाहिये खान पान कहूँ एक, पालड़ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।

लेखन : चांदनी 

Monday, January 11, 2021

मीराबाई का जीवन परिचय


मीराबाई एक महान कवियित्री, भगवान श्रीकृष्ण की दीवानी और उनकी परम भक्त थीं। उनका नाम भक्ति-आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय संतों में सुमार है। मीरा के काव्य में कृष्ण भक्ति का अनुपम वर्णन मिलता है।  भगवान कृष्ण को समर्पित उनके भजन, उत्तर भारत के घर-घर में अत्यंत ही लोकप्रिय है।

आज भी उनके द्वारा रचित भजन बड़ी श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। उनका जन्म, राजस्थान के राजपूत राजघराने में हुआ था। मीराबाई के जीवन से संबंधित कई कथाएँ और किवदंतियां प्रसिद्ध है।अपने पति के आकस्मिक मृत्यु के बाद वे भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त हो गयी। लोकलाज के कारण उन्हें घर से निकाल दिया गया। उनके बाद वे और भी दृढ़ता से कृष्ण भक्ति में तल्लीन हो गयी। मीरा कृष्ण की दीवानी थी, उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति की गहराई अतल है। उन्होंने सामाजिक और पारिवारिक लोक-लाज की प्रवाह किए बगैर कृष्ण को अपना पति माना और उनकी भक्ति में लीन हो गयीं।

मीरा बाई का संक्षिप्त परिचय

जन्म वर्ष सन 503 ईस्वी की आसपास

जन्म स्थान राजस्थान के मेड़ता

पति का नाम भोजराज

रचना नरसी का मायरा, मीरांबाई की पदावली, राग सोरठ के पद, राग गोविंद, गीत गोविंद टीका

निधन सन 1557 ईस्वी

मीराबाई के जन्म से सम्बंधित कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनके जन्म वर्ष, जन्म स्थान को लेकर विद्वानों के बीच मतांतर है। प्रचलित कविदंती, कहानी, साहित्य तथा अन्य स्रोतों के मंथन से उनके जीवन से जुड़ी जो कहानी प्रचलित है। आइये मीराबाई के बारें में विस्तार से जानते हैं।

ज्ञात तथ्यों के आधार पर मीराबाई का जन्म, राजस्थान के मेड़ता में सन 1503 ईस्वी के आसपास बताया जाता है। उनका जन्म राजपरिवार में राव दुदाजी के बंशज में हुआ था। मीरा बाई के पिता रतन सिंह राठौड़ एक छोटे से रियासत के शासक थे। बचपन में ही मीराबाई के माता की मृत्यु हो गयी। मीराबाई अपने पिता की इकलौती संतान थी। कहते हैं की उनका पालन-पोषण उनके दादा के सनिध्य में हुआ। उनके दादा जी भगवान विष्णु के परम भक्त थे। इस कारण साधु-महात्मा का उनके घर पर आना-जाना लगा रहता था। आगे चलकर इस भक्ति भावना का प्रभाव उनके जीवन पर भी पड़ा।

मीराबाई का विवाह

मीराबाई की उम्र जब मात्र तेरह साल की थी तब उनका विवाह कर दिया गया। उनका विवाह सन 1516 ईस्वी  में उदयपुर के राजा महाराणा सांगा के युवराज भोजराज से सम्पन्न हुआ।

सन 1518 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के साथ संघर्ष में राजकुमार भोजराज घायल हो गया। इस कारण दुर्भागयवस से विवाह के कुछ वर्षों के बाद सन 1521 ईस्वी में उनके पति भोजराज की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार मीरा अल्पायु में ही विधवा हो गयी।

इस विपत्ति की घड़ी में वे भगवान श्री कृष्ण की ओर उन्मुख हुई। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार बनाया और कृष्ण भक्ति में लीन हो गयी। धीरे-धीरे इस मिथ्या जगत से उन्हें विरक्त हो गयीं और उन्होंने अपना सारा समय कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया। 

संसार से हो गई विरक्ति

कहते हैं की उस बक्त सती प्रथा प्रचलित थी और पति की मृत्यु होने पर पत्नी को भी पति के साथ आग में जलना पड़ता था। मीरा को भी सती करने की कोशिश  की गयी। लेकिन वह तैयार नही हुईं। धीरे-धीरे उन्हें इस मिथ्या जगत से विरक्त हो गयीं।

उनका अधिकांश समय साधु-संतों की संगति में भजन में व्यतीत करने लगीं। मीराबाई मंदिरों में जाकर कृष्ण का भजन गाती तथा कृष्ण भक्ति में लीन हो जाती। वे परिवार के लोक-लाज को दरकिनार कर कृष्ण की मूर्ति के सामने भक्तिमद में चूर हो नाचने लगती।

तीर्थ यात्रा पर निकलना

मेड़ता के पतन के बाद मीरा ने गृह त्याग कर तीर्थ यात्रा पर निकल गयी। सन्‌ 1539 में वे वृंदावन आ गयी जहॉं उनकी मुलाकात रूप-गोस्वामी से हुई। मीराबाई ने कुछ वर्ष वृंदावन में ही रहकर कृष्ण भक्ति की।

उसके बाद वे सन्‌ 1546 ईस्वी के आस-पास गुजरात में भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका चली गईं। उन्होंने अपना सारा समय कृष्ण भक्ति, साधु संतों के साथ भजन और भक्ति पदों की रचना में व्यतीत करने लगी।

मीराबाई का निधन

कहते हैं की बहुत दिन तक वृन्दावन में समय गुजारने के बाद वे द्वारिका चली गईं। कविदंती है की द्वारका जाकर वे भगवान कृष्ण का भजन करते हुए सन 1560 ईस्वी में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समाहित हो  गईं।

मीराबाई की रचनाएँ

भगवान् श्रीकृष्ण के गुणगान में रचित सैकड़ों भजन को मीराबाई के साथ जोड़ा देखा जाता है। लेकिन विद्वानों का मत इससे अलग है। ज्यादातर विद्वान का मत है की मीराबाई ने इनमें से कुछ भजन का ही रचना की थी।बाकी की रचनायें उनके प्रसंशकों द्वारा रचित जान पड़ती है। उनकी काव्य रचना में उनकी आत्मा का रुदन और हास्य दोनो समाहित है। मीरा बाई ने ब्रजभाषा और राजस्थानी में स्फुट पद की ही रचना की।

कुछ विद्वान के अनुसार मीरा बाई के चार प्रमुख रचना मानी जाती है।

गीतगोविंद टीका,

राग गोविंद,

राग सोरठ

नरसी का मायरा।

मीरा के पद के कुछ अंश 

हरि आप हरो जन री भीर। द्रोपदी री लाज राखी, आप बढ़ायो चीर। भगत कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।

बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुञ्जर पीर। दासी मीरा लाल गिरधर, हरो म्हारी भीर॥

चाकरी में दरसण पास्यू, सुमरण पास्यू खरची। भाव भगती जागीरी पास्यू, तीनूं बाता सरसी।

मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल वैजंती माला। बिंदरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला।

मीरा बाई के पद और दोहे के अंश

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु कृपा करि अपनायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

जी पाई जग में सभी खोवायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो।  पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो, पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

लेखन : चांदनी 

Friday, January 8, 2021

सत्य क्या है?


सत्यं ब्रह्म सनातनम्|
सत्य का शाब्दिक अर्थ होता है, सभी का कल्याण।
पृथ्वी सत्य की शक्ति द्वारा समर्थित है; ये सत्य की शक्ति ही है जो सूरज को चमक और हवा को वेग देती है; दरअसल सभी चीज सत्य पर निर्भर करती हैं।
अपने आस पास मौजूद वस्तु स्थिति, क्रिया प्रतिक्रिया और जन्म मृत्यु को हम मूल रूप में सत्य की संज्ञा देते हैं। हमने क्या प्राप्त किया, क्या स्वीकार किया और किस प्रकार का कार्य किया? मानव मस्तिष्क की गतिविधियां और कार्य ही मूलतः सत्य की श्रेणी में आते हैं।
न्याय दर्शन में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन वाक्य है। जब हम कुछ सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं। जब हम स्वीकार करते हैं तो इस दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। विश्वास सत्य हो या असत्य क्रिया का आधार है।
आध्यात्मवाद कहता कि सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए। अनुभव में "आंतरिक अवरोध" सत्य की कसौटी है। 'पुस्तक मेज पड़ी है' यह मुझे कैसे पता चला? आंख ऐसा दर्शाती है। यह एक अनुभव है। परन्तु आंख कभी कभी धोखा भी देती है। मैंने हाथ से पुस्तक और मेज को छुआ। यह दूसरा अनुभव पहले अनुभव की पुष्टि करता है। हाथ से खटखटाने पर जो आवाज सुनायी देती है, वह पुस्तक और मेज से निकलती प्रतीत होती है। यहाँ तीसरा अनुभव पहले दोनों की पुष्टि करता है।
आकर्षणनियम के अनुसार, प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों से आकृष्ट होता है। इसी तरह सत्य ज्ञान के सभी भाग एक दूसरे पर आश्रित हैं। जो निर्णय इस तरह शेष अनुभव से युक्त हो सकता है, वह, सत्य है; जिसमें योग्यता नहीं वह असत्य है। इधर अविरोध वाद के अनुसार सत्यों में परिणाम का भेद होता है।
"मैं ख्याल करता हूँ कि मुझसे अलग, बाहर, मेज और पुस्तक विद्यमान हैं उनमें एक विशेष सम्बन्ध है। यदि स्थिति वास्तव में ऐसी ही है तो मेरा वाक्य सत्य है; ऐसा न होने की स्थिति में असत्य है।" यह अनुरुपता का सत्य सिद्धांत है।
अनुरुपता का सिद्धांत वस्तुवाद से गठित है और सर्वमान्य सा है। भारत के दर्शन में प्रत्यक्ष को प्रथम प्रमाण की संज्ञा दी गई है। प्रत्यक्ष 'इंद्रिय और उसके विषय के सामीप्य का फल है।' यह सामीप्य दो प्रकार से हो सकता है: या तो पदार्थ इंद्रिय के पास आये, या मन इंद्रिय द्वार से गुजर कर पदार्थ तक पहुँचे। दूसरी घटना घटती है और मन विषय का रुप ग्रहण करता है। यह अनुरुपता सिद्धांत का स्पष्ट समर्थन है।
स्वामी दयानंद सरस्वती अपनी रचना 'सत्यार्थ प्रकाश' में लिखते हैं कि, इस ग्रंथ को लिखने का प्रयोजन ही सत्य के अर्थ का प्रकाशन है।
जिस प्रकार एक पृथ्वी है एक सूर्य है एक ही मानव जाति है ठीक उसी प्रकार मानवीय धर्म भी एक ही है जिसका आधार सत्य है बाकी सब भ्रम है। 'सत्यार्थ प्रकाश' में स्वामी जी ने सत्य को पांच प्रकार से दर्शाया है।
जो ईश्वर के गुण धर्म और वेदों के अनुकूल हो, वह सत्य है और उसके विरुद्ध असत्य है। वेद ही सत्य ज्ञान की पुस्तक है। इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर है और सृष्टि के उपयोग की विधि निषेध वेद ज्ञान है। वेद सर्वज्ञ ईश्वर के प्रदत्त होने से निर्भांत एवं संशय रहित है, इसी वेद ज्ञान के अनुसार आर्यों ने सिद्धांत निर्धारित किया है।
जो सृष्टि क्रम के अनुकूल है, वह सत्य है और जो विपरीत है सब असत्य है। सृष्टि की रचना और उसका संचालन ईश्वरीय व्यवस्था और प्राकृतिक नियमों के अधीन है।
जो यथार्थ वक्ता, धार्मिक, सब के सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है। जो छल कपट और स्वार्थ से रहित है वह सत्योपदेशक है।
मनुष्य की आत्मा सत्य असत्य को जानती है परन्तु हठ, दुराग्रह और अविद्या आदि दोषों के कारण सत्य को छोड़ असत्य की तरफ बढती।
जिस आचरण और व्यवहार को आप अपने लिए नहीं चाहते उसे दूसरों के साथ कभी भी नहीं करना चाहिए। धर्म और सत्य का सार ही यही है। सत्य, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्म, अर्थापति , सम्भव और अभाव से प्रतिपादित होना चाहिए।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को सत्य का अर्थ बतलाते हुए कहते हैं कि, 'इस संसार में एक ही सत्य है और है इस धरती पर जन्म लेने वाले की अनिवार्यत: मृत्यु होना। अर्थात् जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। इसमें पशु पक्षी, कीट पतंग, अनुरक्त और विरक्त किसी प्रकार का कोई भेद नहीं है।'
जो प्राणियों के लिए अत्यंत हितकारी हो वही सत्य है। सत्ता तथा वास्तविकता को ही सत्य कहते हैं।
सत्य का अर्थ है कल्याणकारी अर्थात् जिसमें सबका कल्याण निहित हो। सत्य भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों में एक सा रहता है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार, विश्व में सत्य एक है और मानव उसे विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं।    
स्वामी जी कहते हैं, " हमें शक्ति चाहिए, इसलिए अपने आप पर विश्वास करो। अपने स्नायुओं को शक्तिशाली बनाओ। हमें लोहे की पेशियाँ और फौलाद के स्नायु चाहिए। हम बहुत रो चुके हैं, अब और रोना नहीं, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मानव बनों। हमें मानव गठन करने वाला धर्म चाहिए, सिद्धांत चाहिए, चारो ओर हमें मानव गठन करने वाली शिक्षा चाहिए। सत्य की परीक्षा यह है; कि कोई भी वस्तु जो तुम्हे शरीर से, बुद्धि से या आध्यात्मिकता से निर्बल करती है, उसे विष समझ कर त्याग दो, इसमें कोई जीवन नहीं है, यह सत्य नहीं हो सकती। सत्य माने पवित्रता, सत्य माने समग्र ज्ञान, सत्य द्वारा बल प्राप्ति होनी चाहिए।" सत्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए स्वामी जी कहते हैं, "सत्य तो बलप्रद होता है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अंधकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दे।"
               सत्य की परिभाषा क्या है?
               सत्य की इतनी ही परिभाषा
               है जो सदा था, जो सदा है
               और जो सदा रहेगा।
लेखन : मिनी