मीराबाई एक महान कवियित्री, भगवान
श्रीकृष्ण की दीवानी और उनकी परम भक्त थीं। उनका नाम भक्ति-आन्दोलन के सबसे
लोकप्रिय संतों में सुमार है। मीरा के काव्य में कृष्ण भक्ति का अनुपम वर्णन मिलता
है। भगवान कृष्ण को समर्पित उनके भजन, उत्तर
भारत के घर-घर में अत्यंत ही लोकप्रिय है।
आज भी उनके द्वारा रचित भजन बड़ी श्रद्धा के साथ
गाये जाते हैं। उनका जन्म, राजस्थान के राजपूत राजघराने में हुआ था।
मीराबाई के जीवन से संबंधित कई कथाएँ और किवदंतियां प्रसिद्ध है।अपने पति के
आकस्मिक मृत्यु के बाद वे भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त हो गयी। लोकलाज के कारण
उन्हें घर से निकाल दिया गया। उनके बाद वे और भी दृढ़ता से कृष्ण भक्ति में तल्लीन
हो गयी। मीरा कृष्ण की दीवानी थी, उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति की गहराई अतल है।
उन्होंने सामाजिक और पारिवारिक लोक-लाज की प्रवाह किए बगैर कृष्ण को अपना पति माना
और उनकी भक्ति में लीन हो गयीं।
मीरा बाई का संक्षिप्त परिचय
जन्म वर्ष – सन 503 ईस्वी
की आसपास
जन्म स्थान – राजस्थान
के मेड़ता
पति का नाम – भोजराज
रचना – नरसी का मायरा, मीरांबाई
की पदावली, राग
सोरठ के पद, राग
गोविंद, गीत
गोविंद टीका।
निधन – सन 1557 ईस्वी
मीराबाई के जन्म से सम्बंधित कोई प्रामाणिक जानकारी
उपलब्ध नहीं है। इनके जन्म वर्ष, जन्म स्थान को लेकर विद्वानों के बीच मतांतर
है। प्रचलित कविदंती, कहानी, साहित्य तथा अन्य स्रोतों के मंथन
से उनके जीवन से जुड़ी जो कहानी प्रचलित है। आइये मीराबाई के बारें में विस्तार से
जानते हैं।
ज्ञात तथ्यों के आधार पर मीराबाई का जन्म, राजस्थान
के मेड़ता में सन 1503 ईस्वी के आसपास बताया जाता है। उनका जन्म
राजपरिवार में राव दुदाजी के बंशज में हुआ था। मीरा बाई के पिता रतन सिंह राठौड़
एक छोटे से रियासत के शासक थे। बचपन में ही मीराबाई के माता की मृत्यु हो गयी।
मीराबाई अपने पिता की इकलौती संतान थी। कहते हैं की उनका पालन-पोषण उनके दादा के
सनिध्य में हुआ। उनके दादा जी भगवान विष्णु के परम भक्त थे। इस कारण साधु-महात्मा
का उनके घर पर आना-जाना लगा रहता था। आगे चलकर इस भक्ति भावना का प्रभाव उनके जीवन
पर भी पड़ा।
मीराबाई का विवाह
मीराबाई की उम्र जब मात्र तेरह साल की थी तब उनका
विवाह कर दिया गया। उनका विवाह सन 1516 ईस्वी
में उदयपुर के राजा महाराणा सांगा के युवराज भोजराज से सम्पन्न हुआ।
सन 1518 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के साथ संघर्ष में
राजकुमार भोजराज घायल हो गया। इस कारण दुर्भागयवस से विवाह के कुछ वर्षों के बाद
सन 1521
ईस्वी में उनके पति भोजराज की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार मीरा अल्पायु में ही विधवा
हो गयी।
इस विपत्ति की घड़ी में वे भगवान श्री कृष्ण की ओर
उन्मुख हुई। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार बनाया और कृष्ण भक्ति
में लीन हो गयी। धीरे-धीरे इस मिथ्या जगत से उन्हें विरक्त हो गयीं और उन्होंने
अपना सारा समय कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया।
संसार से हो गई विरक्ति
कहते हैं की उस बक्त सती प्रथा प्रचलित थी और पति की मृत्यु होने पर पत्नी को भी पति के साथ आग में जलना पड़ता था। मीरा को भी सती करने की कोशिश की गयी। लेकिन वह तैयार नही हुईं। धीरे-धीरे उन्हें इस मिथ्या जगत से विरक्त हो गयीं।
उनका अधिकांश समय साधु-संतों की संगति में भजन में व्यतीत करने लगीं। मीराबाई मंदिरों में जाकर कृष्ण का भजन गाती तथा कृष्ण भक्ति में लीन हो जाती। वे परिवार के लोक-लाज को दरकिनार कर कृष्ण की मूर्ति के सामने भक्तिमद में चूर हो नाचने लगती।
तीर्थ यात्रा पर निकलना
मेड़ता के पतन के बाद मीरा ने गृह त्याग कर तीर्थ
यात्रा पर निकल गयी। सन् 1539 में वे वृंदावन आ गयी जहॉं उनकी मुलाकात
रूप-गोस्वामी से हुई। मीराबाई ने कुछ वर्ष वृंदावन में ही रहकर कृष्ण भक्ति की।
उसके बाद वे सन् 1546 ईस्वी
के आस-पास गुजरात में भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका चली गईं। उन्होंने अपना
सारा समय कृष्ण भक्ति, साधु संतों के साथ भजन और भक्ति पदों की रचना में
व्यतीत करने लगी।
मीराबाई का निधन
कहते हैं की बहुत दिन तक वृन्दावन में समय गुजारने
के बाद वे द्वारिका चली गईं। कविदंती है की द्वारका जाकर वे भगवान कृष्ण का भजन
करते हुए सन 1560
ईस्वी में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समाहित हो गईं।
मीराबाई की
रचनाएँ
भगवान् श्रीकृष्ण के गुणगान में रचित सैकड़ों भजन
को मीराबाई के साथ जोड़ा देखा जाता है। लेकिन विद्वानों का मत इससे अलग है।
ज्यादातर विद्वान का मत है की मीराबाई ने इनमें से कुछ भजन का ही रचना की थी।बाकी
की रचनायें उनके प्रसंशकों द्वारा रचित जान पड़ती है। उनकी काव्य रचना में उनकी
आत्मा का रुदन और हास्य दोनो समाहित है। मीरा बाई ने ब्रजभाषा और राजस्थानी में
स्फुट पद की ही रचना की।
कुछ विद्वान के अनुसार मीरा बाई के चार प्रमुख रचना मानी जाती है।
गीतगोविंद टीका,
राग गोविंद,
राग सोरठ
नरसी का मायरा।
मीरा के पद के कुछ अंश
हरि आप हरो जन री भीर। द्रोपदी री लाज राखी, आप
बढ़ायो चीर। भगत कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।
बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी
कुञ्जर पीर। दासी मीरा लाल गिरधर, हरो म्हारी भीर॥
चाकरी में दरसण पास्यू, सुमरण
पास्यू खरची। भाव भगती जागीरी पास्यू, तीनूं बाता सरसी।
मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल
वैजंती माला। बिंदरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला।
मीरा बाई के पद और दोहे के अंश
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु कृपा करि अपनायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
जी पाई जग में सभी खोवायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो। मीरा के
प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो, पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
लेखन : चांदनी