महाराज शांतनु कुरु वंश के प्रतापी राजा थे। ये महाराज प्रतीप के पुत्र थे। महाराज प्रतीप की घोर तपस्या के फलस्वरूप शांतनु का जन्म हुआ था। शान्त पिता के पुत्र होने के कारण इनका नाम शांतनु पड़ा।
कहा जाता है कि एक बार महाराज प्रतीप गंगा तट पर तपस्या कर रहे थे। उनके रुप सौन्दर्य से मोहित हो कर देवी गंगा उनकी दाहिनी जंघा पर जा बैठी। महाराज यह देख आश्चर्य में पड़ गये। देवी गंगा ने कहा, 'हे राजन् मैं ऋषि पुत्री गंगा आपसे विवाह की अभिलाषा से आपके पास आयी हूँ।' महाराज प्रतीप ने उत्तर दिया, गंगे तुम मेरी दाहिनी जांघ पर बैठी हो। पत्नी को तो वामांगी होना चाहिए, दाहिनी जांघ तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्र वधु के रूप में स्वीकार करता हूँ।
तत्पश्चात् महाराज शांतनु ने पुत्र प्राप्ति के लिए कठोर तप किया और उन्हें शांतनु के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
युवावस्था में पिता की आज्ञा से महाराज शांतनु ने देवी गंगा से विवाह किया। लेकिन देवी गंगा ने विवाह से पूर्व उनसे यह वचन लिया कि, मैं आपसे विवाह तो करूंगी, लेकिन आपको वचन देना पड़ेगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
देवी गंगा से महाराज शांतनु को आठ पुत्र उत्पन्न हुए थे, लेकिन गंगा ने सात पुत्रों को अपने जल में बहा दिया। और महाराज शांतनु कुछ बोल न सके। लेकिन जब आठवें पुत्र की प्राप्ति हुई तो देवी गंगा फिर से वही करना चाह रही थी लेकिन महाराज शांतनु ने वचन भंग करते हुए उन्हें रोका, हे देवी आपने मेरे सात पुत्रों को यूँ ही जल में प्रवाहित कर दिया और मैं चुप रहा लेकिन आप मेरे इस पुत्र को जीवन दान दे दो। महाराज शांतनु के इस वचन भंग से देवी गंगा रूष्ट होकर पुत्र सहित अन्तर्ध्यान हो गयीं।
तत्पश्चात युवा होने पर अपने पुत्र को लेकर महाराज शांतनु के पास आती हैं और कहती हैं, हे राजन् यह आपका पुत्र देवव्रत है और मैं इसे आपको सौंपती हूँ। यही देवव्रत महाभारत के इतिहास में भीष्म के रुप में प्रसिद्ध हुए।
महाराज शांतनु निषाद कन्या सत्यवती के रूप सौन्दर्य पर आसक्त हो गये थे। महारानी सत्यवती से महाराज शांतनु को चित्रांगदा और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।