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Friday, January 8, 2021

सत्य क्या है?


सत्यं ब्रह्म सनातनम्|
सत्य का शाब्दिक अर्थ होता है, सभी का कल्याण।
पृथ्वी सत्य की शक्ति द्वारा समर्थित है; ये सत्य की शक्ति ही है जो सूरज को चमक और हवा को वेग देती है; दरअसल सभी चीज सत्य पर निर्भर करती हैं।
अपने आस पास मौजूद वस्तु स्थिति, क्रिया प्रतिक्रिया और जन्म मृत्यु को हम मूल रूप में सत्य की संज्ञा देते हैं। हमने क्या प्राप्त किया, क्या स्वीकार किया और किस प्रकार का कार्य किया? मानव मस्तिष्क की गतिविधियां और कार्य ही मूलतः सत्य की श्रेणी में आते हैं।
न्याय दर्शन में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन वाक्य है। जब हम कुछ सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं। जब हम स्वीकार करते हैं तो इस दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। विश्वास सत्य हो या असत्य क्रिया का आधार है।
आध्यात्मवाद कहता कि सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए। अनुभव में "आंतरिक अवरोध" सत्य की कसौटी है। 'पुस्तक मेज पड़ी है' यह मुझे कैसे पता चला? आंख ऐसा दर्शाती है। यह एक अनुभव है। परन्तु आंख कभी कभी धोखा भी देती है। मैंने हाथ से पुस्तक और मेज को छुआ। यह दूसरा अनुभव पहले अनुभव की पुष्टि करता है। हाथ से खटखटाने पर जो आवाज सुनायी देती है, वह पुस्तक और मेज से निकलती प्रतीत होती है। यहाँ तीसरा अनुभव पहले दोनों की पुष्टि करता है।
आकर्षणनियम के अनुसार, प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों से आकृष्ट होता है। इसी तरह सत्य ज्ञान के सभी भाग एक दूसरे पर आश्रित हैं। जो निर्णय इस तरह शेष अनुभव से युक्त हो सकता है, वह, सत्य है; जिसमें योग्यता नहीं वह असत्य है। इधर अविरोध वाद के अनुसार सत्यों में परिणाम का भेद होता है।
"मैं ख्याल करता हूँ कि मुझसे अलग, बाहर, मेज और पुस्तक विद्यमान हैं उनमें एक विशेष सम्बन्ध है। यदि स्थिति वास्तव में ऐसी ही है तो मेरा वाक्य सत्य है; ऐसा न होने की स्थिति में असत्य है।" यह अनुरुपता का सत्य सिद्धांत है।
अनुरुपता का सिद्धांत वस्तुवाद से गठित है और सर्वमान्य सा है। भारत के दर्शन में प्रत्यक्ष को प्रथम प्रमाण की संज्ञा दी गई है। प्रत्यक्ष 'इंद्रिय और उसके विषय के सामीप्य का फल है।' यह सामीप्य दो प्रकार से हो सकता है: या तो पदार्थ इंद्रिय के पास आये, या मन इंद्रिय द्वार से गुजर कर पदार्थ तक पहुँचे। दूसरी घटना घटती है और मन विषय का रुप ग्रहण करता है। यह अनुरुपता सिद्धांत का स्पष्ट समर्थन है।
स्वामी दयानंद सरस्वती अपनी रचना 'सत्यार्थ प्रकाश' में लिखते हैं कि, इस ग्रंथ को लिखने का प्रयोजन ही सत्य के अर्थ का प्रकाशन है।
जिस प्रकार एक पृथ्वी है एक सूर्य है एक ही मानव जाति है ठीक उसी प्रकार मानवीय धर्म भी एक ही है जिसका आधार सत्य है बाकी सब भ्रम है। 'सत्यार्थ प्रकाश' में स्वामी जी ने सत्य को पांच प्रकार से दर्शाया है।
जो ईश्वर के गुण धर्म और वेदों के अनुकूल हो, वह सत्य है और उसके विरुद्ध असत्य है। वेद ही सत्य ज्ञान की पुस्तक है। इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर है और सृष्टि के उपयोग की विधि निषेध वेद ज्ञान है। वेद सर्वज्ञ ईश्वर के प्रदत्त होने से निर्भांत एवं संशय रहित है, इसी वेद ज्ञान के अनुसार आर्यों ने सिद्धांत निर्धारित किया है।
जो सृष्टि क्रम के अनुकूल है, वह सत्य है और जो विपरीत है सब असत्य है। सृष्टि की रचना और उसका संचालन ईश्वरीय व्यवस्था और प्राकृतिक नियमों के अधीन है।
जो यथार्थ वक्ता, धार्मिक, सब के सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है। जो छल कपट और स्वार्थ से रहित है वह सत्योपदेशक है।
मनुष्य की आत्मा सत्य असत्य को जानती है परन्तु हठ, दुराग्रह और अविद्या आदि दोषों के कारण सत्य को छोड़ असत्य की तरफ बढती।
जिस आचरण और व्यवहार को आप अपने लिए नहीं चाहते उसे दूसरों के साथ कभी भी नहीं करना चाहिए। धर्म और सत्य का सार ही यही है। सत्य, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्म, अर्थापति , सम्भव और अभाव से प्रतिपादित होना चाहिए।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को सत्य का अर्थ बतलाते हुए कहते हैं कि, 'इस संसार में एक ही सत्य है और है इस धरती पर जन्म लेने वाले की अनिवार्यत: मृत्यु होना। अर्थात् जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। इसमें पशु पक्षी, कीट पतंग, अनुरक्त और विरक्त किसी प्रकार का कोई भेद नहीं है।'
जो प्राणियों के लिए अत्यंत हितकारी हो वही सत्य है। सत्ता तथा वास्तविकता को ही सत्य कहते हैं।
सत्य का अर्थ है कल्याणकारी अर्थात् जिसमें सबका कल्याण निहित हो। सत्य भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों में एक सा रहता है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार, विश्व में सत्य एक है और मानव उसे विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं।    
स्वामी जी कहते हैं, " हमें शक्ति चाहिए, इसलिए अपने आप पर विश्वास करो। अपने स्नायुओं को शक्तिशाली बनाओ। हमें लोहे की पेशियाँ और फौलाद के स्नायु चाहिए। हम बहुत रो चुके हैं, अब और रोना नहीं, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मानव बनों। हमें मानव गठन करने वाला धर्म चाहिए, सिद्धांत चाहिए, चारो ओर हमें मानव गठन करने वाली शिक्षा चाहिए। सत्य की परीक्षा यह है; कि कोई भी वस्तु जो तुम्हे शरीर से, बुद्धि से या आध्यात्मिकता से निर्बल करती है, उसे विष समझ कर त्याग दो, इसमें कोई जीवन नहीं है, यह सत्य नहीं हो सकती। सत्य माने पवित्रता, सत्य माने समग्र ज्ञान, सत्य द्वारा बल प्राप्ति होनी चाहिए।" सत्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए स्वामी जी कहते हैं, "सत्य तो बलप्रद होता है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अंधकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दे।"
               सत्य की परिभाषा क्या है?
               सत्य की इतनी ही परिभाषा
               है जो सदा था, जो सदा है
               और जो सदा रहेगा।
लेखन : मिनी