Thursday, January 28, 2021

आइये जानते हैं हस्तिनापुर के परमशील पाण्डु ज्येष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर के बिषय में

अद्भुत, अनुपम क्षमाशील, परमज्ञानी, युद्ध कौशल में पारंगत, पाण्डु ज्येष्ठ, धर्मश्रेष्ठ, पाण्डु पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर जैसे सहनशील योद्धाओं के इतिहास से सजी हुई है ये भारत भूमि। जहाँ युधिष्ठिर जैसे धर्मनिष्ठ  ने जन्म लेकर इस भूमि की महत्ता को उच्च शिखर प्रदान किया। 

धर्मराज युधिष्ठिर हस्तिनापुर के न्याय प्रिय और प्रजाप्रिय सम्राट थे, जिन्होंने सदैव धर्म का पालन किया और सत्य के रास्ते अपने कर्तव्य को फलीभूत किया। 

धर्मराज युधिष्ठिर महाराज पाण्डु तथा महारानी कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र थे। जिन्होंने भरत वंश की कीर्ति को एक नयी ज्योति प्रदान की। माता कुन्ती ने धर्मराज का आह्वान करके इन्हें प्राप्त किया था इसलिए इन्हें धर्मराज का पुत्र कहते हैं। 

युधिष्ठिर बचपन से ही अपने काकाश्री विदुर और पितामह महामहिम भीष्म से प्रभावित थे। और धार्मिक क्षवि वाले व्यक्ति थे। उन्हें कृपाचार्य ने राजनीति तथा द्रोणाचार्य ने शस्त्र विद्या में निपुण किया था। ऐसे महान व्यक्तियों से शिक्षा पाकर युधिष्ठिर अपने कौशल में और भी पारंगत हो गये थे। 

महाराज युधिष्ठिर एक आदर्श पुत्र थे उन्होंने सदैव अपनी माता तथा अपने बडो़ की आज्ञा का पालन किया। माता की आज्ञा की वजह से ही उन्होंने अपने भाइयों सहित द्रोपदी से विवाह किया था। 

कौरवों द्वारा बार बार अपमानित होने पर भी उन्होंने सदैव अपने भाइयों को शांत रहने की आज्ञा दी।  दुर्योधन की प्रत्येक गलतियों को सदैव क्षमा करते रहे वरणावत में दुर्योधन के षड्यंत्र को चुपचाप सहन किया और अपने भाइयों सहित जान बचाकर चुपचाप वन की ओर चले गए। 

धर्मराज युधिष्ठिर ने खाण्डवप्रस्थ में इन्द्रप्रस्थ नामक एक सुंदर नगर बसाया। जहाँ पर राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। समस्त भारतवर्ष के सभी राजागण तथा मंत्रीगण इस यज्ञ में सम्मिलित हुए। 

धूर्त क्रीड़ा में अपना सबकुछ यहाँ तक की अपनी पत्नी और भाइयों को भी हार जाने के बावजूद चुपचाप दुर्योधन के अपमान को सहते रहे। और शान्तिपूर्ण बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञात वास स्वीकार कर लिया। अज्ञातवास के दौरान विराटनगर में राजा विराट के सेवक के रुप में काम किया। अपने भाइयों तथा पत्नी को ऐसी दशा में देखकर क्या उनका मन तनिक भी द्रवित न हुआ होगा।  लेकिन अपने धर्म तथा स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्होंने अनेक कष्टों को सहा। वनवास के दौरान गन्धर्वों द्वारा दुर्योधन तथा हस्तिनापुर की स्त्रियों के बंधक बनाये जाने पर युधिष्ठिर ने स्वयं अपने धर्म तथा वंश की रक्षा के लिए अर्जुन को मदद का आदेश दिया। धन्य हैं ऐसे क्षमाशील नर। 

यक्ष द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देकर इन्होंने अपनी बुद्धिमता का परिचय दिया फलस्वरूप प्रसन्न होकर यक्ष ने किसी एक भाई को जीवित करने की बात कही तब धर्मराज ने बड़े ही शालीनता से माता माद्री के एक पुत्र के जीवन को मांगा जिससे युधिष्ठिर की धर्मनिष्ठा तथा विद्वता का स्पष्ट परिचय मिलता है। 

जब वनवास की अवधि पूरी हो गयी तो दुर्योधन ने युधिष्ठिर के राज्य को वापस करने से इंकार कर दिया। युधिष्ठिर ने शांति से अपने राज्य को प्राप्त करने के प्रयास किए लेकिन जब वे विफल रहे तो युद्ध का मार्ग अपनाया। 

युधिष्ठिर ने अपने जीवन में एकमात्र पाप किया था जो कि महाभारत युद्ध के 15वें दिन बोला गया आधा झूठ। 

युद्ध के पश्चात 36 वर्षों तक युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर के सम्राट के रूप में हस्तिनापुर की सेवा की। उन्होंने कृष्ण और व्यास की आग्रह पर अश्वमेध यज्ञ किया। 


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