Tuesday, January 26, 2021

महर्षि वाल्मीकि का जीवन परिचय


भारत ऋषि-मुनियों और संतों तथा महान पुरुषों का देश रहा है। भारत की भूमि पर अनेक परमवीर और पराक्रमीयों ने जन्म लेकर भारत की भूमि को गौरवान्वित किया है। भारत की विद्वता इसी बात से सिद्ध होती है कि भारत को सोने की चिड़िया और विश्व गुरु आदि नाम से भी जाना जाता है। यही कारण है कि भारत की शिक्षा, ज्ञान का अनुकरण देश-विदेश में किया जाता रहा है। आदिकाल से ही भारत – भूमि पर ऐसे ऐसे महाकाव्य अथवा ग्रंथों की रचना हुई है, उसके समानांतर कोई दूसरा साहित्य भी नहीं है।

वाल्मीकि जी कि रामायण के रचियता थे, इनकी महान रचना से हमें महाग्रन्थ रामायण का सुख मिला। यह एक ऐसा ग्रन्थ हैं जिसने मर्यादा, सत्य, प्रेम, भातृत्व, मित्रत्व एवम सेवक के धर्म की परिभाषा सिखाई। वाल्मीकि जी संस्कृत भाषा के आदि कवि और आदि काव्य ‘रामायण’ के रचयिता के रूप में सुप्रसिद्ध हैं।

वाल्मीकि ऋषि वैदिक काल के महान ऋषि बताए जाते हैं। धार्मिक ग्रंथ और पुराण अनुसार वाल्मीकि नें कठोर तप अनुष्ठान सिद्ध कर के महर्षि पद प्राप्त किया था। परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा और आशीर्वाद पाकर वाल्मीकि ऋषि नें भगवान श्री राम के जीवनचरित्र पर आधारित महाकाव्य रामायण की रचना की थी। ऐतिहासिक तथ्यों के मतानुसार आदिकाव्य श्रीमद वाल्मीकि रामायण जगत का सर्वप्रथम काव्य था। महर्षि वाल्मीकि नें महाकाव्य रामायण की रचना संस्कृत भाषा में की थी। वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए परन्तु वे एक ज्ञानी केवट थे, वे कोई ब्राह्मण नही थे

वाल्मीकि ऋषि का  बचपन –

माना जाता है कि वाल्मीकि जी महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र प्रचेता की संतान हैं उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था बचपन में उन्हे एक भील चुरा ले गया था। जिस कारण उनका लालन-पालन भील प्रजाति में हुआ। इसी कारण वह बड़े हो कर एक कुख्यात डाकू – डाकू रत्नाकर बने और उन्होंने जंगलों में निवास करते हुए अपना काफी समय बिताया।

रत्नाकर से वाल्मीकि तक का सफर –

भील प्रजाति में पले-बढ़े रत्नाकर राजा के राज्य में सैनिक हुआ करते थे। साथी सैनिकों का युद्ध बंदियों के साथ अच्छा आचरण न होने के कारण रत्नाकर ने विद्रोह किया। इस विद्रोह में उनके राजा ने सीधी शत्रुता मोल ली और रत्नाकर को दंड देने के लिए घोषणा की जिसके कारण उन्हें जंगल में छिपकर रहना पड़ा। अपनी आजीविका चलाने के लिए उन्हें राहगीरों से लूटपाट करना पड़ता था। यही उनके नाम के पहले डाकू शब्द लगने का कारण था। डाकू रत्नाकर लोगों को लूट कर अपना गुजारा करते थे। कई बार वह लोगों की हत्या भी कर देते थे। इसी पाप कर्म में लिप्त रत्नाकर जब एक बार जंगल में किसी नए शिकार की खोज में थे तब उनका सामना मुनिवर नारदजी से हुआ। रत्नाकर नें लूटपाट के इरादे से नारद मुनि को बंदी बना लिया। तब नारदजी नें उन्हे रोकते हुए केवल एक सवाल पूछा, “यह सब पाप कर्म तुम क्यों कर रहे हो?” इस सवाल के उत्तर में रत्नाकर नें कहा कि ह यह सब अपने परिवारजन के लिए कर रहा है। तब नारद मुनि बोले –“क्या तुम्हारे इस पाप कर्म के फल भुगतान में भी तुम्हारे परिवारजन तुम्हारे हिस्सेदार बनेंगे?” इसपर रत्नाकर नें बिना सोचे ‘हां’ बोल दिया। तब नारद जी नें रत्नाकर से कहा की एक बार अपने परिवार वालों से पूछ लो, फिर में तुम्हें अपना सारा धन और आभूषण स्वेच्छा से अर्पण कर के यहाँ से चला जाऊंगा। रत्नाकर नें उसी वक्त अपने एक-एक स्वजन के पास जा कर, अपने पाप का भागीदार होने की बात पूछी। लेकिन किसी एक नें भी हामी नहीं भरी। इस बात से डाकू रत्नाकर को बहुत दुख हुआ और आघात भी लगा। इसी घटना से उसका हृदय परिवर्तन हो गया। रत्नाकर नें इस प्रसंग के बाद पाप कर्म त्याग दिये और जप तप का मार्ग अपना लिया। फिर कई वर्षों की कठिन तपस्या के फल स्वरूप उन्हे महर्षि पद प्राप्त हुआ।

महर्षि वाल्मीकि जयंती महोत्सव

देश भर में महर्षि वाल्मीकि की जयंती को श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस अवसर पर शोभायात्राओं का आयोजन भी होता है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित पावन ग्रंथ रामायण में प्रेम, त्याग, तप व यश की भावनाओं को महत्व दिया गया है। वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना करके हर किसी को सद्‍मार्ग पर चलने की राह दिखाई। इस अवसर पर वाल्मीकि मंदिर में पूजा अर्चना भी की जाती है तथा शोभायात्रा के दौरान मार्ग में जगह-जगह के लोग इसमें बडे़ उत्साह के साथ भाग लेते हैं। झांकियों के आगे उत्साही युवक झूम-झूम कर महर्षि वाल्मीकि के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। महर्षि वाल्मीकि को याद करते हुए इस अवसर पर उनके जीवन पर आधारित झांकियां निकाली जाती हैं व राम भजन होता है।

भारतीय संस्कृति के सत्य स्वरूप का गुणगान करने, जीवन का अर्थ समझाने, व्यवहार की शिक्षा से ओत-प्रोत ‘वाल्मीकि-रामायण’ एक महान् आदर्श ग्रंथ है। उसमें भारतीय संस्कृति का स्वरूप कूट-कूट कर भरा है। आदिकवि भगवान वाल्मीकि जी ने श्रीराम चंद्र जी के समस्त जीवन-चरित को हाथ में रखे हुए आंवले की तरह प्रत्यक्ष देखा और उनके मुख से वेद ही रामायण के रूप में अवतरित हुए।

वेद: प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना॥

‘रामायण कथा’ की रचना भगवान वाल्मीकि जी के जीवन में घटित एक घटना से हुई।

” मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥”

एक बार महर्षि वाल्मीक एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा। इस श्लोक के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि ने क्रौंच का शिकार करने वाले व्यक्ति को श्राप दिया।

यह श्लोक महर्षि के मन मस्तिष्क में सदैव गुंजायमान रहा क्योंकि उन्होंने आज से पूर्व उन्होंने इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। जब प्रत्येक शब्द का गणना किया गया तो 8-8 अक्षरों से यह छंद बंद हो गया।  जिसे लय दिया जाना सुलभ हो गया। इसको गाया जा सकता था और उच्च स्वर में वाचन भी किया जा सकता था। महर्षि को यह ज्ञात था कि उन्हें राम के जीवन पर महाकाव्य की रचना करनी है। उन्हें रचना करने की विधि ज्ञात नहीं थी, इस छंद के माध्यम से उन्होंने पूरे महाकाव्य की रचना ब्रह्मा जी के मार्गदर्शन से की।

ब्रह्मा जी ने स्वयं महर्षि बाल्मीकि को आश्रम में प्रकट होकर उन्हें राम–सीता के जीवन में होने वाले घटनाओं को करुण रस में लिखने को कहा। इससे पूर्व अनेक रसों में यह घटना घट चुकी थी, आगे की घटना करुण रस प्रधान थी। जिसमें सीता-राम के विरह की वर्णन को जीवंत रूप देना था। आगे की सभी घटनाएं बिरह अवस्था में व्यतीत करनी थी, जिसमें करुण रस की प्रधानता थी। इस करुण रस में भी उन्होंने मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। सीताराम ने कभी भी अपने मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया कितनी ही परिस्थितियां उनके विपरीत रही।

लेखन : चांदनी 




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