Tuesday, March 2, 2021

महर्षि वेदव्यास की जीवनी

आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का विशेष पर्व मनाया जाता है। इस बार यह गुरु पूर्णिमा 27 जुलाई यानी शनिवार को है। इस पूर्णिमा के दिन शिष्य अपने गुरु की पूजा करते हैं और उन्हें उपहार भी देते हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु देवता को तुल्य माना गया है। गुरु पूर्णिमा के विशेष अवसर पर हम आपको महर्षि वेद व्यास के बारे में बताते हैं। बहुत ही कम लोगों को उनके पिता के बारे में और किन परिस्थितियों में उनका जन्म हुआ, इस बारे में जानकारी है।

महर्षि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई. पूर्व में हुआ था। उनके सम्मान में ही हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा मनाया जाता है। वेद, उपनिषद और पुराणों का प्रणयन करने वाले वेद व्यास जी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। बहुत से लोग इस दिन व्यास जी के चित्र का पूजन और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। बहुत से मठों और आश्रमों में लोग ब्रह्मलीन संतों की मूर्ति या समाधी की पूजा करते हैं।

श्री वेदव्यासजी ईश्वर के अंशावतार माने जाते हैं। उनका जन्म द्वीप में हुआ था, अत: उनका नाम द्वैपायन पड़ा। उनका शरीर श्याम वर्ण का था, इसलिए वे कृष्ण द्वैपायन भी कहलाये। वेदों के विभाग करने के कारण उन्हें वेदव्यास कहा जाने लगा। बद्रीवन में निवास करने के कारण बादरायण कहलाये।

वे महामुनि पराशर के पुत्र थे। उनकी माता का नाम सत्यवती था। उन्होंने अपनी माता सत्यवती को यह वचन दिया था कि जब कभी बड़ा संकट होगा, वे याद करते ही उनके सामने उपस्थित हो जायेंगे । सत्यवती के सामने अब अपने कुल और वंश के उत्तराधिकार की रक्षा का भार आ खड़ा हुआ था।

उन्होंने विचित्रवीर्य की विधवा अम्बिका और छोटी रानी अम्बालिका को वेदव्यास से नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न करने हेतु तैयार किया। व्यासजी ने मां से कहा: ”सन्तान प्राप्ति के समय मेरे काले-कलूटे घनी जटाओं वाले तथा भयभीत कर देने वाले रूप तथा गन्ध से दोनों भयभीत न हों, अन्यथा इसका दुष्परिणाम होगा।

सहज रहने वाले को ही योग्य सन्तान मिलेगी। बड़ी रानी अम्बिका को यह समझाने के बाद भी वह उनके रूप-रंग, गन्ध को देखकर इतनी भयभीत हुई कि उसने आखें बन्द कर लीं । व्यासजी ने माता सत्यवती से कहा: ”बलवान, विद्वान् होने पर भी उत्पन्न पुत्र अन्धा होगा।” व्यासजी की भविष्यवाणी सत्य साबित हुई।

धृतराष्ट्र अन्धे पैदा हुए। अब अन्धे पुत्र से शासन तो चलाया नहीं जा सकता। अत: सत्यवती ने व्यासजी से अम्बालिका द्वारा दूसरे पुत्र की कामना की। अम्बालिका ने व्यासजी से समागम के समय आखें तो बन्द नहीं कीं, किन्तु उनके रूप-रंग को देखकर उसका शरीर पीला पड़ गया।

व्यासजी ने भविष्यवाणी की कि अब पुत्र पाए वर्ण का होगा। समय आने पर अम्बालिका ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो आगे चलकर पाण्डु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दोनों पुत्रों को दोषयुक्त देखकर सत्यवती ने तीसरे पुत्र की कामना की। अब सत्यवती ने एक दासी को व्यासजी के पास भेजा।

दासी ने प्रसन्नतापूर्वक न केवल वेदव्यासजी की सेवा की, वरन् प्रसन्नतापूर्वक उनसे समागम किया। अत: वेदव्यासजी की भविष्यवाणी के अनुसार विद्वान, धर्मात्मा पुत्र विदुर का जन्म हुआ। गांधारी के सौ पुत्रों को जन्म देने के पीछे का रहस्य वेदव्यासजी को ही मालूम था।

पाण्डु की मृत्यु के बाद श्राद्ध के समय वेदव्यासजी ने माता सत्यवती के सामने यह भविष्यवाणी की कि सुख का समय समाप्त हो गयाहै । कौरवों के संहार को तुम देख न पाओगी । अत: तुम वन चली जाओ। सत्यवती को अपने पुत्र व्यास की अलौकिक शक्ति पर विश्वास था।

जब वह वन जाने लगीं तो उनके साथ उनकी दोनों वधुएं भी चलीं गयीं। वेदव्यासजी ने द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा दुपद को यथावत दिखलायी, जिससे वे उनके परमभक्त बन गये। वेदव्यासजी ने अपनी अलौकिक शक्ति से धृतराष्ट्र को यह सचेत करते हुए फटकार लगायी कि तुम अपने पुत्रों को रोको, अन्यथा समस्त कुल का नाश होगा।

उन्होंने कौरव पुत्रों की मृत्यु के रहस्य को भी समय से पहले बता दिया था। यह भी कहा जाता है कि जब महाभारत के सोलह वर्षो बाद तपस्यारत धृतराष्ट्र अपने मृत पुत्रों, परिजनों, सम्बन्धियों का शोक नहीं भूल पाये और जब युधिष्ठिर भी सपरिवार वन पहुंचे, तो उनकी इच्छानुसार व्यासजी ने महान तपस्या शक्ति से गंगाजल में उतरकर मृतात्माओं का आवाहन किया।

धृतराष्ट्र के सौ पुत्र, द्रौपदी के पांच पुत्र और अन्य सम्बन्धियों को उनके पूर्व स्वरूप में लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। एक रात पूरी तरह से सबका मिलनोत्सव करवाया, जिसमें सबका एक-दूसरे के प्रति मनोमालिन्य और द्वेषभाव दूर हो गया।

महर्षि वेदव्यासजी ने 18 पुराणों की रचना की, जो इस प्रकार हैं:

1. ब्रह्मा पुराण ।

2. पद्मा पुराण ।

3. विष्णु पुराण ।

4. शिव पुराण ।

5. श्रीमदभागवत पुराण ।

6. नारद पुराण ।

7. अग्नि पुराण ।

8. ब्रह्म वैवर्त्त पुराण ।

9. वराह पुराण ।

10. स्कन्द पुराण ।

11. मार्कण्डेय पुरण ।

12. वामन पुराण ।

13. कूर्म पुराण ।

14. मत्स्य पुराण ।

15. गरूड़ पुराण ।

16.ब्रहमण्ड पुराण ।

17. लिंग पुराण ।

18. भविष्य पुराण ।

कलयुग के प्रभाव से महाभारत में सत्य और असत्य के बीच जो द्वन्ह चला, उसमें सत्य की विजय बताकर वेदव्यासजी ने इस सत्य का भी प्रतिपादन किया कि असत्य को हमेशा ही पराजय का मुंह देखना पड़ता है । जब-जब धर्म की हानि होगी या धर्म संकट में होगा, आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ती जायेंगी, तब-तब महापुरुषों और अवतारों का अवतरण होता रहेगा।

साधुओं और सज्जनों को अन्याय और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए अशान्त और मोह से ग्रस्त लोगों को शान्ति दिलाने के लिए भी वेदव्यास जैसे तत्त्वज्ञानियों का जन्म होता रहेगा। वे सच्चे अर्थो में जगदगुरु थे।

लेखन : चांदनी 

Wednesday, February 24, 2021

ब्रह्मा जी कौन है

ब्रह्मा जी का अवतरण किससे, कैसे और कब हुआ इस सम्बन्ध में पुराणों में एक रोचक कथा प्राप्त होती है, जिसमें बताया गया है कि महाप्रलय के बाद कालात्मिका शक्ति को अपने शरीर में निविष्ट कर भगवान नारायण दीर्घकाल तक योग निद्रा में निमग्न रहे। महाप्रलय की अवधि समाप्त होने पर उनके नेत्र उन्मीलित हुए और सभी गुणों का आश्रय लेकर वे सृष्टि के कार्य के लिए प्रबुद्ध हुए।

उसी समय उनकी नाभि से एक दिव्य कमल प्रकट हुआ, जिसकी कणिकाओं में स्वयम्भू ब्रह्मा, जो सम्पूर्ण ज्ञानमय और वेदरूप कहे गये है, प्रकट होकर दिखायी पड़े। उन्होंने शून्य में अपने चारों ओर नेत्रों को घुमा घुमाकर देखना प्रारम्भ किया।

इसी उत्सुकता में देखने की चेष्टा करने से चारों दिशाओं में उनके चार मुख प्रकट हो गये किंतु उन्हें कुछ भी दिखायी नहीं पड़ा और उन्हें यह चिन्ता हुई कि इस नाभिकमल में बैठा हुआ मै कौन हूँ और कहाँ से आया हूँ तथा यह कमल भी कहाँ से निकला है।

बहुत चिन्तन करने पर और दीर्घकाल तक तप-अनुसन्धान करने के बाद उन्होने उन परम पुरुष के दर्शन किये, जिन्हें पहले उन्होंने कभी नहीं देखा था और जो मृणाल गौर शेष शैया पर सो रहे थे तथा जिनके शरीर से महानीलमणि को लज्जित करने वाली तीव्र प्रकाशमयी छटा दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रही थी।

ब्रह्मा जी को इससे बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होनें उन भगवान विष्णु को सम्पूर्ण विश्व का तथा अपना भी मूल समझकर उनकी दिव्य स्तुति की। भगवान ने अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर उनसे कहा कि “अब आपको तप करने की आवश्यकता नहीं है, आप तपः शक्ति से सम्पन्न हो गये हैं और आपको मेरा अनुग्रह भी प्राप्त है। अब आप सृष्टि की रचना करने का प्रयत्न कीजिये। आपको अबाधित सफलता प्राप्त होगी”।

भगवान विष्णु की प्रेरणा से सरस्वती देवी ने ब्रह्मा जी के हृदय में प्रविष्ट होकर उनके चारों मुखों से उपवेद और अंगों सहित चारों वेदों का उन्हें ज्ञान कराया। पुनः उन्होंने सृष्टि-विस्तार के लिये सनकादि चार मानस पुत्रों के बाद मरीचिपुलस्त्यपुलह, क्रतु, अंगिरा, भृगु, वशिष्ठ तथा दक्ष आदि मानस पुत्रों को उत्पन्न किया और आगे स्वायम्भुवादि मनु आदि से सभी प्रकार की सृष्टि होती गयी।

इस कथानक से स्पष्ट है कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान नारायण के नाभिकमल से सर्व प्रथम ब्रह्मा जी का प्राकट्य हुआ। इसी से वे पद्मयोनि भी कहलाते हैं। नारायण की इच्छाशक्ति की प्रेरणा से स्वयं उत्पन्न होने के कारण ये स्वयम्भू भी कहलाते है। मानव सृष्टि के मूलहेतू स्वायम्भुव मनु भी उन्हीं के पुत्र थे और उन्ही के दक्षिण भाग से उत्पन्न हुए थे। स्वयम्भू या ब्रम्हा जी के पुत्र होने से वे स्वायम्भुव मनु कहलाते हैं।

ब्रह्मा जी के ही वामभाग से महारानी शतरूपा की उत्पत्ति हुई। स्वायम्भुव मनु तथा महारानी शतरूपा से ही मैथुनी सृष्टि का प्रारम्भ हुआ। सभी देवता ब्रह्मा जी के पौत्र माने गये हैं, अतः, देवताओं में वे पितामह नाम से प्रसिद्ध हैं।

ब्रह्मा जी यूं तो देवता, दानव तथा सभी जीवों के पितामह है, किंतु सृष्टि रचना के कारण वे धर्म एवं सदाचार के ही पक्षपाती हैं, अतः जब कभी पृथ्वी पर अधर्म बढ़ता हैअनीति बढ़ती है तथा पृथ्वीमाता दुराचारियों के भार से पीड़ित होती हैं तब कोई उपाय न देखकर वे गौ रूप धारण कर देवताओं सहित ब्रह्मा जी के पास ही जाती हैं।

इसी प्रकार जब कभी देवासुर संग्रामों में देवगण पराजित होकर अपना अधिकार खो बैठते हैं तो भी प्रायः वे सभी ब्रह्मा जी के पास ही जाते हैं और ब्रह्मा जी भगवान विष्णु की सहायता मांगकर उन्हें अवतार ग्रहण करने को प्रेरित करते हैं।

दुर्गा जी आदि के अवतारों में भी ये ही प्रार्थना करके उन्हें विभिन्न रूपों में अवतरित होने की प्रेरणा देते हैं और पुनः धर्म की स्थापना करने के पश्चात् देवताओं को यथा योग्य भाग का अधिकारी बनाते हैं| इस प्रकार से ब्रह्मा जी का समस्त जगत् तथा देवताओं पर महान् अनुग्रह है।

अपने अवतरण के मुख्य कार्य सृष्टि विस्तार को भलीभांति सम्पन्न कर वे अपने कार्यो तथा विविध अवतारों में प्रेरक बनकर जीव निकाय का महान् कल्याण करते हैं| ब्रह्मा जी के अवतरण का दूसरा मुख्य उद्देश्य था शास्त्र की उद्भावना तथा उसका संरक्षण । पुराणों में यह वर्णन आता है कि जब विष्णु जी के नाभिकमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए तो भगवान् विष्णु की प्रेरणा से ही देवी सरस्वती ने प्रकट होकर उनके चारों मुखों से वेदों का उच्चारण कर समस्त ज्ञानराशि का विस्तार किया|

ब्रह्मा जी के चार मुखों से चार वेद, उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा आदि ऋत्विज् प्रकट हुए। इनके पूर्व मुख से ऋग्वेद, दक्षिण मुख से यजुर्वेद, पश्चिम मुख से सामवेद तथा उत्तर मुख से अथर्ववेद का आविर्भाव (प्रकटीकरण) हुआ।

इतिहास पुराण रूप पंचम वेद भी उनके मुख से आविर्भूत हुआ। साथ ही शेाडषी, उक्थ्य, अग्रिश्होम, आतार्याम, बाजपेय आदि यज्ञ तथा विद्या, दान, तप और सत्य- ये धर्म के चार पाद भी प्रकट हुए। यज्ञकार्य में सर्वाधिक प्रयुक्त होनेवाली पवित्र समिधा और पलाष-वृक्ष ब्रह्मा जी का ही स्वरूप माना जाता है| अथर्ववेद तो ब्रह्मा जी के नाम से ही ब्रह्मवेद कहलाता है ।

पांचों वेदों के ज्ञाता और यज्ञ के मुख्य निरीक्षक ऋत्विज् को ब्रह्मा के नाम से ही कहा जाता हैं, जो प्रायः यज्ञकुण्ड की दक्षिण दिशा में स्थित होकर यज्ञ-रक्षा और निरीक्षण का कार्य करते हैं| भगवान ब्रह्मा वेदज्ञानराशिमय, शांत, प्रसन्न और सृष्टि के रचयिता हैं| सृष्टि का निर्माण कर ये धर्म, सदाचार, ज्ञान, तप, वैराग्य तथा भगवद्भक्ति की प्रेरणा देते हुए सदा सौम्य स्वरूप में स्थित रहते है।

साररूप में वे कल्याण के मूल कारण हैं और समस्त पुरुषार्थों के सम्पादनपूर्वक अपनी सभी प्रजा-संततियों का सब प्रकार से अभ्युदय करते है। सावित्री और सरस्वती देवी के अधिष्ठाता होने से सद्बुद्धि के प्रेरक भी ये ही हैं।

मत्स्यपुराण में बताया गया है कि ब्रह्मा जी चतुर्मुख, चतुर्भुज एवं हंस पर आरूढ़ रहते है, यथारूचि वे कमल पर भी आसीन रहते है । उनके वामभाग में देवी सावित्री तथा दक्षिण भाग में देवी सरस्वती विराजमान रहती हैं। ब्रह्मलोक में जब भी ब्रह्मसभा होती है, वहां भगवान ब्रह्मा जी विराजमान रहते है, इनकी सभा को सुसुखा कहा गया है। इसे ब्रह्मा जी ने स्वयं अपने संकल्प से उत्पन्न किया था।

यह सभी के लिए सुखद हैं। यहाँ सूर्य, चन्द्रमा या अग्नि के प्रकाश की आवश्यकता नहीं हैं। यह अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है । सभी वेद, शास्त्र, ऋषि, मुनि तथा देवता यहां मूर्तरूप होकर नित्य उनकी उपासना करते रहते हैं। समस्त कालचक्र भी मूर्तिमान होकर यहाँ उपस्थित रहता है। ब्रह्मा जी का दिन ही दैनन्दिन सृष्टि-चक्र का समय होता है।

उनका दिन ही कल्प कहलाता है, ‘एक कल्प में चौदह मन्वन्तर का समय होता है’, इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है। ब्रह्मा जी के दिन के उदय के साथ ही त्रैलोक्य की सृष्टि होती है ओर उनकी रात्रि ही प्रलय रूप है।

ब्रह्मा जी की परमायु ब्रह्मवर्ष के मान से एक सौ वर्ष है, इसे ‘पर’ कहते हैं। पुराणों तथा धर्म शास्त्रों के अनुसार इस समय ब्रहमा जी अपनी आयु का आधा भाग अर्थात् एक परार्ध–50 ब्राह्म दिव्य वर्ष बिताकर दूसरे परार्ध में चल रह हैं अर्थात् वर्तमान में उनके 51 वें वर्ष का प्रथम दिन या कल्प है।

उनके दिव्य सौ वर्ष की आयु में अनेक बार सृष्टि और प्रलय का क्रम चलता रहता है। इस प्रकार ब्रह्मा जी सृष्टि और स्रुष्ट्याँतर में चराचर जगत् के साक्षी बनकर स्वयं भी अवतरित होते हैं और अवतारों के प्रेरक भी बनते हैं। उनकी करुणा सब पर है।

ब्रह्मा जी ने हंस रूप में प्रकट होकर साध्यगणों को कल्याणकारी उपदेश दिया है। हंसरूपी ब्रह्मा जी कहते है कि वेदाध्ययन का सार है सत्यभाषण, सत्यभाषण का सार है इन्द्रियसंयम और इन्द्रियसंयम का फल है मोक्ष- यही सम्पूर्ण शास्त्रों का उपदेश है

संग के अमोघ प्रभाव को बताते हुए ब्रह्मा जी कहते है कि जैसे वस्त्र जिस रंग में रंगा जाए वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोर का साथ करता है तो वह भी उन्हीं के जैसा हो जाता है अर्थात् उस पर उन्हीं का रंग चढ़ जाता है इसलिये कल्याण कामी जनों को चाहिए कि वे सज्जनों का ही साथ करें।

सर्वदेवमयी गौ सुरभी भी ब्रह्मा जी के वर से ही महनीय पद को प्राप्त कर सकी है। महाभारत में इस बात को देवराज इन्द्र से बताते हुए ब्रह्मा जी ने कहा कि “हे शचीपते ! जब मैने सुरभी देवी से कहा कि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर मांगो”, तब सुरभी ने कहा ‘लोक पितामह ! आपकी प्रसन्नता ही मेरे लिए सबसे बड़ा वर है’

सुरभी की बात सुनकर उसकी निष्काम तपस्या से अभिभूत हो ब्रह्मा जी ने उसे अमरत्व का वर दे दिया और उससे कहा तुम मेरी कृपा से तीनों लोकों के उपर निवास करोगी और तुम्हारा वह धाम गोलोक नाम से विख्यात होगा महा भागे! तुम्हारी सभी शुभ संतानें मानव लोक में कल्याणकारी कर्म करते हुए निवास करेंगी”। ब्रह्मा जी के वर से ही सभी लोकों में गौएं पूज्य हुई।

भगवान् ब्रह्मा जी तपस्या के मूर्तरूप हैं। प्रलयकाल के जलार्णव में जब सर्वत्र ‘अन्धकार ही अन्धकार’ व्याप्त था, तब इन्हें अव्यक्त दिव्य वाणी द्वारा तप करो-तप करो का आदेश प्राप्त हुआ। उसी दैवीवाक् का अनुसरण कर ब्रह्मा जी दीर्घकाल तक तपस्या में प्रवृत्त हो गये, तब प्रसन्न नारायण ने इन्हें अपने ज्ञान रूप का दर्शन दिया और उन्हें जो उपदेश दिया वह चतुःष्लोकी भागवत के रूप में प्रसिद्ध हो गया। यह नारायण का इन पर विशेष अनुग्रह था वे चार श्लोक इस प्रकार है–

यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः।

तथैव तत्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात्।।

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत्सदसत्परम्

पष्चादहं यदेतच्य यो वषिश्येत सो स्म्यहम्।।

ऋते र्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।

तद्वि़द्यादात्मनो मायां यथा भासो तमः।।

यथा महान्ति भूतानि भूतेशुच्चावचेश्वनु।

प्रविश्टान्यप्रविश्टानि तथा तेशु न तेश्वहम्।।

अर्थात “मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएं हैं, मेरी कृपा तथा उनका तत्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो। सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान ही था। जहां यह सृष्टि नहीं है, वहां मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मै ही हूँ और इसके अतिरिक्त जो कुछ बचा रहेगा, वह भी मै ही हूँ

वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्दमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होने पर भी आकाश मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँती जो मेरी प्रतीति नही होती, इसे मेरी माया समझनी चाहिए

जैसे प्राणियों के पंचभूतरचित छोटे-बड़े शरीर में आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरों के कार्य रूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं ओर पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारण रूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नही भी करते हैं, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टी  से मै उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टी से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ”

यह उपदेश कर नारायण ने अपना रूप अव्यक्त कर लिया तब सर्वभूत स्वरूप ब्रह्मा जी ने अंजलि बांधकर उन्हें प्रणाम किया ओर पहले कल्प में जैसी सृष्टि की रचना उन्होंने की थी, उसी रूप में इस वर्तमान विश्व की रचना की, यथा- ‘सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत्’ ।।

लेखन : चांदनी 

Friday, February 19, 2021

जीवन परिचय : स्वामी दयानंद सरस्वती

भारतभूमि सदैव से ही महान विभूतियों की जन्मस्थली और कर्मस्थली रही है ये भारत भूमि यूँ ही विश्व भर में प्रसिद्ध नहीं है इस पावन भूमि की संतानों ने अपने अद्भुत कार्यों द्वारा इस भूमि का परचम सर्वेसर्वा लहराया है। 

महर्षि दयानंद सरस्वती आदर्शवाद के उच्च कोटि के विद्वान थे उनमें यथार्थवाद की सहज प्रवृत्ति थी अपनी मातृभूमि की सेवा के प्रति अनन्य उत्साह था कर्तव्य के प्रति सच्ची निष्ठा थी। 

महर्षि दयानंद का जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा, गुजरात में हुआ था महर्षि दयानंद के बचपन का नाम 'मूलशंकर' था इनके पिताजी एक समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्तित्व के थे और उनका ताल्लुक ब्राह्मण परिवार से था महर्षि दयानंद का रूझान बचपन से ही वेदों और शास्त्रों के तरफ था एक बार शिवरात्रि के दिन महर्षि अपने पूरे परिवार के साथ मन्दिर में पूजा करने गये थे वहाँ पर उन्होंने देखा कि एक चूहा भगवान को चढ़ाये हुए प्रसाद को खा रहा है और उनके मन में ईश्वर के प्रति सन्देह हुआ और इसी के प्रभाव से उनके मन में सत्य खोज की भावना घर कर गयी 1846 ई० को सत्य की खोज के लिए इन्होंने गृह त्याग दिया महर्षि दयानंद की मुलाकात गुरु विरजानन्द से हुई जिनके तत्वावधान में महर्षि दयानंद ने वेद वेदांग तथा शास्त्रों का अध्ययन किया

महर्षि दयानंद सरस्वती को समाज सुधार आंदोलन का प्रणेता कहा जाता है तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए अपना अहम योगदान दिया अन्धविश्वास व पाखंड आदि का घोर विरोध किया जाति व्यवस्था की कटु आलोचना की स्त्री शिक्षा तथा विधवा विवाह के पक्षधर और सती प्रथा तथा बाल विवाह के घोर विरोधी थे महर्षि दयानंद तैत्रवाद के समर्थक थे उन्होंने वेदों पर भाष्य लिखे 'सत्यार्थ प्रकाश' उनकी बड़ी ही महत्वपूर्ण और अमर कृति मानी जाती है 'संस्कार विधि' और 'ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका' इनकी उल्लेखनीय कृतियों में से एक है। 

1875 ई० को महर्षि दयानंद जी ने गिरगांव मुम्बई में 'आर्यसमाज' नामक संस्था की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य जनकल्याण था। 

भारतीय जनमानस में महर्षि दयानंद जी ने अपनी अमिट छाप छोड़ी वर्षों से बिखरे हुए समाज को एकता के सूत्र में बांधने का महत्वपूर्ण कार्य किया 'वेदों की ओर लौटो'

नारा देकर लोगों में वेदों के प्रति विश्वास प्रकट किया उनके अद्भुत कार्यों, विचारों,और सुधारों को लोग अनन्य उत्साह से सुनते और पढ़ते हैं उनके किए गए कार्य सदैव इस जनमानस में देदीप्यमान रहेंगे। 

30 अक्टूबर 1883 ई० को देशभक्ति से परिपूर्ण यह ज्योति सदैव के लिए अस्त हो गयी। 

लेखन : मिनी 


Sunday, February 14, 2021

स्वामी विवेकानंद जी का जीवन परिचय



"उठो जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रूको नहीं"  स्वामी विवेकानंद। 
स्वामी विवेकानंद एक ऐसा आदर्श और श्रेष्ठ नाम है जिसको कहते हुए भला ऐसा कौन सा मानव होगा जिसका सिर श्रद्धापूर्वक उनके सम्मान में झुकता नहीं हो? धन्य है वो वीर पुरुष। धन्य है वो भारत माँ जिसकी भूमि पर स्वामी जी जैसे युग पुरुष ने जन्म लेकर उस भूमि को गौरवान्वित किया
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 ई० को कलकत्ता में हुआ था इनके पिता विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थेस्वामी विवेकानंद जी के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था स्वामी जी बचपन से ही तीव्र बुद्धि के थे। और इनका मन सदैव आध्यात्मिकता तथा धर्म में ही रमता था स्वामी जी स्वामी रामकृष्ण परमहंस के परम शिष्य थे जिनकी शिक्षा दिक्षा में इन्होंने ज्ञान तथा उन्नत को प्राप्त किया
स्वामी विवेकानंद जी, धर्म, दर्शन, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य आदि के प्रेमी थे वेद उपनिषद्, भगवद् गीता, पुराण आदि ग्रंथों में इनकी गहन रुचि थी विवेकानंद जी ने पश्चिमी तर्क, दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेंबली इंस्टीट्यूटशन (स्काटिश चर्च कालेज) में किया। 1881 ई० में स्वामी जी ने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1884 ई० में स्नातक की डिग्री पूरी कर ली स्वामी विवेकानंद जी के विषय में बताया जाता है कि, स्वामी जी प्रतिदिन पुस्तकालय जाया करते थे और मात्र एक दिन में सम्पूर्ण पुस्तक का अध्ययन कर पुस्तक वापस कर देते थे स्वामी जी के इस अलौकिक तेज से पुस्तकालय कर्मचारी भी परेशान रहते थे
मात्र उन्तालीस वर्ष की आयु में 4 जुलाई 1902 ई० को स्वामी जी की मृत्यु हो गई
मात्र उन्तालीस वर्ष के जीवन काल में स्वामी जी ने जो उल्लेखनीय कार्य किए युगों युगों तक स्मरणीय रहेगा
शिकागो स्थित सर्व धर्म सम्मेलन में 'जीरो' जैसे शब्द पर इतना ओजस्वी भाषण देकर इस देश की कीर्ति तथा गौरव को इक नयी दिशा दी थी "मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों" से सम्बोधन कर पूरी दुनिया को भारतीय संस्कृति से रूबरू करवाया
स्वामी जी केवल संत ही नहीं अपितु महान देशभक्त और उत्कृष्ट विचारक भी थे अमेरिका से लौट कर इन्होंने भारतवासियों का आह्वान कुछ इस प्रकार किया था, " नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूंजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पड़े झाडि़यों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से
रवींद्र नाथ ठाकुर ने स्वामी जी के विषय में कहा था, "यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए उनमें आप सब कुछ सकरात्मक ही पायेंगे, नकरात्मक कुछ भी नहीं"
"एक विचार लें और इसे अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें इसी विचार में सोचें, सपना देखें और इसी विचार पर जिएं अपने मस्तिष्क दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाये यही सफलता का रास्ता है इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं" -- स्वामी विवेकानंद
लेखन : मिनी 

Saturday, February 13, 2021

सूरदास - जीवन परिचय

"जा पर दीनानाथ ढ़रैं।

सोई कुलीन बड़ौ सुन्दर, सोइ जा पर कृपा करैं।"

अपनी काव्यप्रतिभा की ज्योति से हिन्दी साहित्य जगत को ज्योतिष्मान करने वाले सूरदास सगुण भक्तिधारा के कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं। इन्होंने कृष्ण की बाल लीला की ऐसी रसपूर्ण अविरल धारा प्रवाहित की, जिसका साहित्य जगत में कोई तोड़ ही नहीं है।

सूरदास के जन्म तथा जन्म स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। किन्तु साक्ष्यों के आधार पर अधिकांश विद्वानों ने सूरदास का जन्म 1478 ई० माना है। सूरदास के जन्मान्ध होने के विषय में भी अनेक मत प्रचलित हैं ।सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य माने जाते हैं।

सूरदास के काव्य का मुख्य विषय कृष्ण भक्ति है। 'भागवत' पुराण को उपजीव्य मानकर राधा कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन 'सूरसागर' में किया गया है। सूरसागर के दशम स्कन्ध में 3632 पद हैं जो कि कृष्ण भक्ति काव्य का गौरव और सूरसाहित्य की अनुपम धरोहर है।

सूरदास द्वारा रचित रचनाओं की संख्या पच्चीस मानी जाती थी। 'सूरसागर', 'सूरसारावली', 'साहित्यलहरी' आदि। सूरसागर एवं साहित्य लहरी इनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है।

श्रीकृष्ण के बाल्यावस्था का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है। सूर ने कृष्ण चरित्र के उन भावनात्मक लीलाओं का वर्णन किया है, जिसमें उनकी अन्तरात्मा की गहरी अनुभूति हुई है। सूर की दृष्टि कृष्ण के लोक- रंजक रूप पर अधिक पड़ी है। सूर वात्सल्य भाव-चित्रण में अद्वितीय हैं। बालक की विविध चेष्टाओं, क्रियाकलापों, नटखट रूप, विनोद, मातृहृदय की भावनाओं, अभिलाषाओं का मनोरम वर्णन प्रस्तुत किया है।

कर पग गहि अंगुठा मुख मेलत।

प्रभु पौढ़े पालनैं अकेले, हरषि- हरषि अपने रंग खेलत।।

भक्ति और श्रृंगार में सूर अद्वितीय हैं। श्रृंगार के दोनों पक्षों, वियोग और संयोग का 'भ्रमरगीत' में अद्भुत वर्णन मिलता है।

बिनु गोपाल बैरनि भई कुंजैं।

तब वै लता लगति तनु सीतल अब भई विषम अनल की पुंजैं।।

भ्रमरगीत केवल दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता का नहीं अपितु काव्य के श्रेष्ठ उपादानों से युक्त है। सगुण भक्ति का ऐसा सुन्दर प्रतिपादन अत्यंत दुर्लभ है।

ऊधौ मन न भए दस बीस।

एक हुतौ सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस।।

1853 ई० में चन्द्रसरोवर के समीप पारसौली ग्राम में श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते हुए इनकी मृत्यु हो गई। "खंजन नैन रूप रस माते" पद का गान करते हुए अपने भौतिक शरीर का परित्याग कर दिया।

मेरौ मन अनंत कहाँ सुख पावै।

जैसें उड़ि जहाज कौ पंक्षी, फिरि जहाज पर आवै।। लेखन : मिनी  

Wednesday, February 10, 2021

संत कबीर

संत कबीर

"भारी कहूँ तो बहुं डरूं, हरुआ कहूं तो झूठ। 
मैं क्या जानूं राम कौ, नैनां कबहूँ न दीठ।"
भक्ति आन्दोलन अपने समय का प्रगतिशील आन्दोलन था। कबीर दास जी का इससे गहरा सम्बन्ध है। तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कबीर की विचारधारा स्वतंत्र रूप से गतिशील थी। मानव एकता की स्थापना उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य था। उन्होंने जाति पांति तथा भेदभाव की नीति की घोर निंदा की। 
'जांति पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई। '
संत कबीर का जन्म 1440 ई० को वाराणसी के लहरतारा में हुआ था। इनका लालन पालन नीरु और नीमा नामक जुलाहे ने किया था। इनकी शिक्षा दिक्षा गुरु रामानंद के नेतृत्व में हुई। 
कबीर दास भक्ति काल के निर्गुण धारा के ज्ञानमार्गी कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं, 'उनकी भक्ति के गागर से इतना रस छलका कि काव्य की कटोरी भी कम नहीं भरी है।'
कबीर की कविता में न कोई शास्त्रीय व्यवस्था है, न कोई निश्चित रचना शैली, फिर भी उनकी कविता जीवन्त और महत्वपूर्ण है। 
            "रांम भगति अनियाले तीर। 
             जेहि लागै सो जानैं पीर।।"
कबीर के काव्य में भक्ति की पूरी एक प्रक्रिया है, जो तमाम शब्दों के संदर्भ से ईश्वर विषयक ज्ञान को सामने लाती है। साधु की संगति से गुरू की उपलब्धि सबसे पहली पीढ़ी है। गुरु की कृपा से ईश्वर को जानने का मार्ग और साधन पता चलता है। वह गुरु ही है, जो बतलाता है राम नाम का स्मरण, जाप और संकीर्तन ही ईश्वर से परिचय कराता है। स्मरण और जाप, आन्तरिक और मानसिक है।
     तूं तूं करता तूं भया, मुझ में रही न हूं। 
     वारी तेरे नांउं परि, जित देखौं तित तूं।।
कबीर का कृतियाँ व्यापक रुप में लोकोन्मुखी है। डा० श्यामसुंदर दास ने कबीर दास को हिन्दी के श्रेष्ठ रहस्यवादी कवि के रूप में चित्रित किया है। कि, "सभी संत कवियों के काव्य में थोड़ा बहुत रहस्यवाद मिलता है, पर उनका काव्य विशेषकर कबीर का ही ऋणी है। बंगला के कवीन्द्र रवींद्र को भी कबीर का ऋण स्वीकार करना होगा। अपने रहस्यवाद के बीज उन्होंने कबीर मे पाये| सच्चे रहस्यवाद के आविर्भाव के लिए प्रतिभा की अपेक्षा होती तो। कबीर इसी प्रतिभा के कारण सफल हुए हैं। "
हंम न मरैं मरिहै संसारा ।
हंमकौ मिला जीआवनहारा ।।
साकल मरहिं संत जन जीवहिं।
भरि भरि रांम रसांइन पीवहिं।।
साखी, सबद, रमैनी,और बीजक इनकी प्रमुख रचनायें हैं। 
कबीर पढिंबा दूरि करि, पुसतग देहु बहाइ। 
बावन अक्खिर सोधि कै, ररै ममैं चित लाइ।।
लेखन : मिनी 


Monday, February 8, 2021

महर्षि रमन

भारत भूमि सदैव से ही ऋषि मुनियों की तपस्थली रही है। जहाँ अनेक विद्वानों तथा तपस्वियों ने जन्म लिया और अपने ज्ञान तथा तप से भारत भूमि को गौरवान्वित किया। महर्षि रमन भी एक ऐसा ही आध्यात्मिक नाम है जिसे जानने के लिए व्यक्ति को आध्यात्म को समझना पडेगा। मानव शरीर में आत्मा का निवास होता है। यह सर्वविदित है लेकिन आत्मा का साक्षात्कार कर पाना सबके बस में कहाँ।
महर्षि रमन का जन्म तिरुचुली मद्रास में 1879 को हुआ था। इनके पिता का ना सुन्दरम् अय्यर और माता का अलगम्मल था। महर्षि रमन की प्रारंभिक शिक्षा तिरुचुली और दिंदिगुल में हुई।
कहते हैं अरुणाचल का नाम सुनकर महर्षि अरुणाचल की ओर आकर्षित हुए। वे अक्सर प्रार्थना तथा ध्यान किया करते थे। अरुणाचल का परिचय प्राप्त करने के पश्चात वे तप के उद्देश्य से वहाँ पहुंचे और शिखासूत्र त्याग कौपीन धारण कर सहस्त्रस्तंभ कक्ष में तप में रत हो गये। वे तप करने पठाल लिंग गुफा में भी गये जो चीटियों, छिपकलियों तथा अन्य कीटों से भरी हुई थी। उन्होंने 25 वर्षों तक तप किया और उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई।
संस्कृत के महान विद्वान 'गणपति शास्त्री' ने उन्हें 'रामनन्' और 'महर्षि' की उपाधियाँ प्रदान की।
अप्रैल 1950 को महर्षि रमन चिरनिद्रा में विलीन हो गये।
महर्षि रमन की शिक्षायें तथा उपदेश:
महर्षि रमन के अनुसार,
"यह प्रतिमान जगत् विचार के सिवाय कुछ भी नहीं है। जब मन सभी प्रकार के विचारों से विमुक्त हो जाता है, उस समय व्यक्ति की दृष्टि से यह जगत -प्रपंच भी ओझल हो जाता है, और मन निजानंद का भोग करता है। इसके विपरीत, जब जगत दिखाई देता है। अर्थात् विचार प्रकट होने लगते हैं, उस समय मन दर्द और पीड़ा का अनुभव करने लगता है।"
किसी मनुष्य को अपने उन व्यक्तिगत स्वार्थों को त्याग देना चाहिए जो उसे इस नश्वर जगत से बांध देता है। मिथ्या अहंकार को त्याग देना ही सच्चा अहंकार है।
प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः दिव्य ओजस्वी है। जो कुछ दुर्बल और अशुभ दिख रहे हैं, वे उसकी आदतें वासनाएं और विचार हैं, किन्तु वह स्वयं वैसा नहीं है।
कर्ममय जीवन का परित्याग करने की आवश्यकता नहीं है। यदि आप हर दिन ध्यान करें तो आप अपने जीवन के कर्तव्यों को आसानी से जारी रख सकते हैं।
मन के सात्विक गुणों को विकसित करने का सबसे अनुकूल तरीका सर्वोत्कृष्ट आचार नीति है आहार का नियमन, अर्थात् केवल सात्विक आहार ग्रहण करना, वह भी परिमित मात्रा में।
लेखन : मिनी

Saturday, February 6, 2021

आइये जानते हैं अग्र पूज्यनीय भगवन् श्रीकृष्ण की लीला को ।

कोई कहता है लीलाधर कोई कहता है वंशीधर कोई कहता है कृष्णा कोई कन्हैया प्रत्येक मनुष्य के मन की बात है जिसको जिस नाम से सुकून प्राप्त होता है उसी नाम से पुकारता है महाभारत युद्ध में अग्रणी भूमिका निभाने वाले भगवान कृष्ण को कौन नहीं जानता फिर भी हर किसी के ज्ञान के लिए एक अस्पष्ट परिचय की आवश्यकता होती है

श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। बात द्वापर युग की है मथुरा के राजा कंस का आतंक चरम पर पर था उसके आतंक ने उस समय और भी चरमोत्कर्ष को प्राप्त किया जब आकाशवाणी से उसे यह पता चला कि उसकी मृत्यु उसके आठवें भांजे के हांथों होगी दुष्ट कंस ने अपनी मासूम बहन देवकी तथा उनके पति वासुदेव को बंधक बनाकर कारागार में डाल दिया कंस ने अपनी बहन के आठ पुत्रों को मार डाला लेकिन जब आठवें पुत्र के जन्म का समय हुआ तो कंस को पता ही नहीं चला। वासुदेव ने अपने पुत्र को ले जाकर गोकुल में नन्द बाबा के यहाँ छोड़ दिया वहाँ पर पुत्री का जन्म हुआ वासुदेव जी उस कन्या को लेकर कंस  के कारागार में वापस आ जाते जब कंस को बच्चे के जन्म की खबर मिलती है तो वह भागा हुआ आता है लेकिन वह देखता है यह तो कन्या है लेकिन फिर भी आकश वाणी को सोचकर वह जैसे ही कन्या को मारने के लिए उठाता है वह कन्या कंस के हाथ से छूट जाती है और विराट रुप में कंस को बतलाती है कि, हे दुष्ट तुझे मारना वाला तो कहीं और है और यही कन्या विंध्याचल में जाकर विंध्यवासिनी देवी बनी

कृष्ण के वास्तविक माता पिता तो देवकी और वासुदेव थे लेकिन इनका लालन पालन नन्द बाबा तथा यशोदा मैया ने किया

यहीं से शुरू हो जाता है लीलाधर की असीम लीलाबचपन में ही राक्षसी पूतना को सबक सिखायामाखन चुराना, गैयाँ चराना, पनघट पर शरारतें करना कुछ ऐसी थी इनके बचपन की लीला। अधरों पर वंशी रखकर मनमोहक वंशी बजाना। गोपियों संग रास रचाना

कंस का वध इनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था कंस का वध कर मथुरा वासियों को आतंक से मुक्ति दिलायी और अपने माता पिता को आजादी

महाभारत युद्ध ही नहीं अपितु सम्पूर्ण महाभारत काल में श्रीकृष्ण का अतुलनीय योगदान है युधिष्ठिर के राजमहल में राजसूय यज्ञ के दौरान श्रीकृष्ण को सभी श्रेष्ठ जनों द्वारा अग्र पूज्यनीय घोषित किया गयासम्पूर्ण महाभारत में श्रीकृष्ण ने सिर्फ और सिर्फ सत्य को चुना सदैव शान्ति को स्थापित करना चाहा  सदैव पाण्डवों की रक्षा की कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के हौंसले को डिगने नहीं दिया सदैव अपने उपदेश से अर्जुन का मार्ग दर्शन किया। अर्जुन को कर्म का उपदेश दिया हमेशा सत्य पर चलने के बावजूद अनेक श्राप को सहन करना पड़ा जिनकी वजह से श्रीकृष्ण ही नहीं अपितु उनके सम्पूर्ण वंश का सर्वनाश हो गया और काल ने सबके साथ उन्हें भी अपने काल में समाहित कर लिया

लोगों ने आम जनमानस की तरह उनका भी अपमान किया उन्हें भी मायावी, छलिया, रणछोड़, धूर्त और न जाने किन नामों से पुकारा स्वयं इनकी बुआ के पुत्र शिशुपाल इन्हें सदैव छलिया और धूर्त कहता रहता था श्रीकृष्ण ने उसकी सौ गलतियों को क्षमा किया पर कहते हैं न जिसका काल आता है उसे कौन रोक सकता है शिशुपाल की गलतियों ने अपनी सीमा लांघ दी और कृष्ण के सुदर्शन चक्र ने उसे धड़ से अलग कर दिया

              "कोई कहे नटवर कोई नन्दलाला

              राधा का ये श्याम बड़ा दिल वाला"

लेखन : मिनी 

Friday, February 5, 2021

महाभारत के पात्र - 'दानवीर कर्ण'

भारतीय जनमानस में कर्ण की छवि एक ऐसे महायोद्धा की है जो सदैव प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा क्षत्रिय की संतान होकर भी सदैव सूतपुत्र के रूप में तिरस्कृत होता रहा

कर्ण का जन्म भगवान सूर्य के आशीर्वाद से हुआ था जो कि वास्तविक रूप से माता कुन्ती तथा भगवान सूर्य के पुत्र थे लेकिन उनका पालन पोषण एक सूत दंपति ने किया जिसने कर्ण को नदी से प्राप्त किया था कुंवारी अवस्था में ही कुन्ती ने कर्ण को जन्म दिया था। लोक लाज के भय से उन्होंने कर्ण को नदियों में प्रवाहित कर दिया। 

कर्ण ने भगवान परशुराम से शिक्षा प्राप्त की थी कर्ण शस्त्र विद्या में कुशल एवं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों में एक थेपरन्तु कर्ण को अपने गुरु परशुराम से ही श्राप मिलापरशुराम ने क्रोधित होकर कर्ण को श्राप दे दिया था कि समय आने पर वह अपनी विद्या भूल जायेगा कर्ण के जीवन की सबसे बड़ी भूल दुर्योधन से मित्रता थी पर इसे भूल कहें या नियति का कुचक्र कि कर्ण को दुर्योधन से मित्रता के लिए बाध्य होना पड़ा कर्ण ने वचन दिया था कि जीवन पर्यंत वह दुर्योधन का मित्र रहेगा। क्योंकि वह उसका ऋणी है द्रोपदी के वस्त्रहरण पर भी कर्ण दुखी था मित्रता के वश में वह चुपचाप रहा कर्ण संसार के सच्चे मित्र थे जिन्होंने किसी भी परिस्थिति में अपनी मित्रता नहीं छोड़ी न ही मित्र के दुराचार में न ही अनाचार में यह जानने के बावजूद वह पाण्डवों का ज्येष्ठ है उसने अपनी मित्रता का त्याग नहीं किया। 

कर्ण को दानवीर कहा जाता है कोई भी व्यक्ति कर्ण से दान मांगने पर निराश नहीं होता था कर्ण ने वचन दिया था कि सूर्योदय के समय याचक को मनचाहा दान देगा उसने इन्द्र को अपना कवच कुंडल तक दान दे दिया मृत्यु की शय्या पर भी उन्होंने अपनी दानवीरता तथा उदारता का स्पष्ट परिचय दिया और सच्चे दानवीर की तरह अपना स्वर्णदंत दान कियाकुरूक्षेत्र के मैदान में युद्ध के दौरान कर्ण के रथ का पहिया जमीन में फंस जाने पर कर्ण उन्हें निकालने का प्रयत्न करने लगे जिसका लाभ उठाकर अर्जुन ने भगवान कृष्ण के आदेश पर कर्ण का वध कर दियाऔर अस्त हो गया वह सूर्य, शूरवीर, दानवीर कर्ण जिसकी अमर गाथा इतिहास में सदैव स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहेगी

लेखन : मिनी

महाभारत के पात्र - 'द्रोपदी'


जिसके नेत्र खुले हुए कमल के समान देदीप्यमान थे, भौंहे चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। अग्निकुण्ड से उत्पन्न याज्ञशयनी द्रुपद कन्या द्रोपदी जिसका जन्म ही क्षत्रियों के नाश के लिए हुआ था। द्रोपदी पांचाल नरेश राजा द्रुपद की कन्या थी। जो कि यज्ञ कुण्ड से उत्पन्न हुई थी। राजा द्रुपद को अपनी कन्या के लिए एक ऐसे वर की तलाश थी जिसकी कीर्ति और यश का गुणगान तीनों लोको में हो, जो कुशल तथा सर्वश्रेष्ठ योद्धा हो। राजा द्रुपद ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए एक स्वयंवर का आयोजन किया जिसकी शर्त यह थी कि खौलते कड़ाहे  में देखकर जो कोई मछली की आंख भेदने में सफलता प्राप्त करेगा उसी से वह अपनी पुत्री का विवाह करेंगे शर्त अनुसार ब्राह्मण वेष धारी अर्जुन योग्य वर साबित हुए।  परन्तु माता कुन्ती के आज्ञावश पाचों पाण्डवों को द्रोपदी से विवाह करना पड़ा। 

द्रोपदी को महाभारत युद्ध का सबसे बड़ा कारण माना जाता है, कि द्रुपद कन्या की वजह से कुरूक्षेत्र का मैदान रक्तरंजित हुआ। इसे समाज का नियम कह लें या लोगों की कुंठित विचारधारा जो कि इक स्त्री को सदैव दोषी मान लिया जाता है। पुरूष के नियत पर किसी प्रकार का कोई प्रश्नचिन्ह नहीं होता।  और स्त्री को नाश का कारण बता दिया जाता है।  हस्तिनापुर के भरी सभा में द्रोपदी को अपमानित कर दु:शासन ने द्रोपदी को निर्वस्त्र करना चाहा, लेकिन भगवान की कृपा से वह अपने कुकृत्य में सफल न हो सका, और सब हैरान थे,

नारी बीच साड़ी है, कि साड़ी बीच नारी है। 

साड़ी की ही नारी है, कि नारी ही साड़ी है।।  

इन सब के बावजूद सभा में मौजूद सभी श्रेष्ठजन, विद्वान जन सिर्फ और सिर्फ मौन थे। किसी के प्रति घृणा और ईष्या की भावना इतनी बलवान कि उसकी पत्नी को भरी सभा में बेइज़्जत करें जैसा कि धृतराष्ट्र पुत्रों ने किया और अपने नाश को स्वयं आमंत्रित किया। 

द्रोपदी के पांच पुत्र थे जो कि पांच पाण्डवों की संतान थे। द्रोपदी धर्मनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, पतिव्रता नारी थी।  जिसे अपने जीवन में अपने जीवन में अनेक कष्टों का भोगी बनना पड़ा। अंतिम यात्रा में पांचों पाण्डवों संग  हिमालय की तरफ जाते वक़्त मेरू पर्वत के आसपास द्रोपदी की मृत्यु हो गयी। 

 लेखन : मिनी 

Saturday, January 30, 2021

आइये जानते हैं कौन थे नकुल और सहदेव?

नकुल और सहदेव महाराज पाण्डु तथा माद्री के जुड़वां संतान थे। कहते हैं महारानी कुन्ती के तीनों पुत्रों के जन्म के पश्चात रानी माद्री को भी संतान प्राप्ति की इच्छा हुई। तत्पश्चात् महारानी कुन्ती ने उन्हें किसी देवता का ध्यान करने को कहा। कुन्ती के आदेश पर माद्री ने अश्विनी कुमारों का ध्यान किया।  वरदान स्वरूप उन्हें जुड़वां संतान की प्राप्ति हुई माद्री मद्र राज शल्य की बहन  थी। 

नकुल अत्यंत पराक्रमी तथा खूबसूरत थे। नकुल सहदेव से बड़े थे। नकुल को धर्म, नीति और चिकित्सा का बड़ा ज्ञान प्राप्त था। नकुल तलवारबाजी और घुड़सवारी में दक्ष थे। अज्ञातवास के दौरान नकुल विराट में 'ग्रंथिक' नाम से जाने जाते थे। जो कि घोडों की देखभाल करते थे। 

सहदेव पांचों पाण्डवों में सबसे छोटे थे। सहदेव को धर्मशास्त्र, चिकित्सा तथा ज्योतिष के ज्ञानी थे।  अज्ञातवास के दौरान इन्होंने भी विराटनगर में पशुओं की देखभाल का अनुभव किया था। कहा जाता है तो सहदेव को भविष्य को भी समझने का ज्ञान था। 

 लेखन :मिनी 

भीम कौन थे?

परम शक्तिशाली, वीर योद्धा, जिसके बाहुओं में सहस्त्र बल था।  जिसने नर्मदा नदी के प्रवाह तक को रोक लिया था। जिसने हिडिंब जैसे शक्तिशाली राक्षस का वध किया।  वह कोई और नहीं पाण्डु पुत्र भीम ही थे।  भीम महाराज पाण्डु तथा माता कुन्ती के पुत्र थे जो महाभारत काल के परम शक्तिशाली योद्धाओं में गिने जाते थे। पवन देव का आह्वान करके माता कुन्ती ने इन्हें प्राप्त किया था। ये युधिष्ठिर के कनिष्ठ भ्राता थे। वरदान स्वरूप इनकी भुजाओं में दस हजार हाथियों का बल था। भीमसेन ने ही राक्षस हिडिंब के उत्पात को खत्म कर उसे चिर निंद्रा में सुला दिया था। इसके पश्चात हिडिंब की बहन हिडिम्बा से भीम का विवाह सम्पन्न हुआ था।  भीमसेन को हिडिम्बा से एक शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति हुई थी जिसको घटोत्कच के नाम से जाना जाता है। भीमसेन ने अभिमानी जरासंध का भी वध किया था। उन्होंने अकेले ही धृतराष्ट्र के सहस्त्र पुत्रों को मृत्यु लोक तक पहुंचा दिया था। भीमसेन ने दुष्ट कीचक को भी उसके कुकर्मों की सजा दी। बचपन में ही एक बार ईर्ष्यावश शकुनि के षड्यंत्र में दुर्योधन ने भीम को विष देकर नदी में फेंक दिया था। भीम जल में बह कर नागलोक पहुंच गये।  वहाँ नागों के डसने से उनका विष उतर गया। मूर्छा हटने पर भीम ने नागों पर प्रहार कर दिया। वासुकी तथा नागराज आर्यक (जो कि भीम के नाना के नाना थे) ने भीम को पहचान लिया और प्रसन्न होकर भीम को कुण्डों (आठ कुण्ड) का जल पीने को दिया। इतिहास भीम को वृकोदर आदि नाम से भी पुकारता है। कहते हैं कि भीम के पेट में वृक नामक अग्नि थी। जिससे कारण उन पर विष वगैरह का कोई असर नहीं होता इसी कारण वह वृकोदर कहलाये।

लेखन :मिनी

जानें धनुर्धर अर्जुन की शूरवीरता को


शूरवीर कर्तव्य निष्ठ वह था परम शिष्य द्रोणाचार्य का, श्रीकृष्ण सखा, इन्द्रियविजित वह नायक था पाण्डव इतिहास का। 
इतिहास के पन्ने अर्जुन की शूरता, धर्मनिष्ठा, कर्तव्यनिष्ठा तथा उदारता की कहानियों से भरे पड़े हैं। अर्जुन की यश और वीरता तीनों लोको में विदित थी। अर्जुन श्रीकृष्ण के परमप्रिय थे। इतिहास अर्जुन को पाण्डवों के नायक के रूप में वर्णित करता है। 
अर्जुन महाराज पाण्डु तथा महारानी कुन्ती के तीसरे पुत्र थे।  इन्द्र के वरदान स्वरूप माता कुन्ती ने अर्जुन को प्राप्त किया था। अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त किया था। अर्जुन गुरु द्रोण के परमप्रिय शिष्य थे। अर्जुन ने हिमालय पर कठोर तपस्या की थी।  अर्जुन की परीक्षा लेने के विचार से भगवान शिव किरात वेश में आये थे तत्पश्चात दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। अर्जुन की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने अर्जुन को 'पाशुपतास्त्र' प्रदान किया। अर्जुन ने अग्नि से 'गांडीव धनुष' तथा 'अक्षय तूणीर' प्राप्त किया| गन्धर्व राज चित्रसेन ने नृत्य विद्या का भी ज्ञान प्राप्त किया था। जो कि अज्ञातवास के दौरान विराट नगर में 'भृंगला' नाम से राजा विराट के महल में नृत्य की शिक्षा देते थे। 
भीष्म पितामह स्वयं कहते थे, 'वीरता, स्फूर्ति, ओज, तेज, शस्त्र कुशलता और अस्त्र ज्ञान में अर्जुन के समान कोई नही।'
अर्जुन राजा द्रुपद के स्वंवर की शर्त को पूरा कर द्रुपद कन्या द्रोपदी से विवाह किया था। तत्पश्चात माता की आज्ञानुसार पांचों भाइयों का विवाह द्रोपदी के साथ सम्पन्न हुआ। अर्जुन का दूसरा विवाह श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ सम्पन्न हुआ था। वीर अभिमन्यु अर्जुन तथा सुभद्रा के ही पुत्र थे। विभिन्न ग्रंथों में अर्जुन के और भी कई विवाह के उल्लेख मिलते हैं। 
लेखन : मिनी

Thursday, January 28, 2021

आइये जानते हैं हस्तिनापुर के परमशील पाण्डु ज्येष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर के बिषय में

अद्भुत, अनुपम क्षमाशील, परमज्ञानी, युद्ध कौशल में पारंगत, पाण्डु ज्येष्ठ, धर्मश्रेष्ठ, पाण्डु पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर जैसे सहनशील योद्धाओं के इतिहास से सजी हुई है ये भारत भूमि। जहाँ युधिष्ठिर जैसे धर्मनिष्ठ  ने जन्म लेकर इस भूमि की महत्ता को उच्च शिखर प्रदान किया। 

धर्मराज युधिष्ठिर हस्तिनापुर के न्याय प्रिय और प्रजाप्रिय सम्राट थे, जिन्होंने सदैव धर्म का पालन किया और सत्य के रास्ते अपने कर्तव्य को फलीभूत किया। 

धर्मराज युधिष्ठिर महाराज पाण्डु तथा महारानी कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र थे। जिन्होंने भरत वंश की कीर्ति को एक नयी ज्योति प्रदान की। माता कुन्ती ने धर्मराज का आह्वान करके इन्हें प्राप्त किया था इसलिए इन्हें धर्मराज का पुत्र कहते हैं। 

युधिष्ठिर बचपन से ही अपने काकाश्री विदुर और पितामह महामहिम भीष्म से प्रभावित थे। और धार्मिक क्षवि वाले व्यक्ति थे। उन्हें कृपाचार्य ने राजनीति तथा द्रोणाचार्य ने शस्त्र विद्या में निपुण किया था। ऐसे महान व्यक्तियों से शिक्षा पाकर युधिष्ठिर अपने कौशल में और भी पारंगत हो गये थे। 

महाराज युधिष्ठिर एक आदर्श पुत्र थे उन्होंने सदैव अपनी माता तथा अपने बडो़ की आज्ञा का पालन किया। माता की आज्ञा की वजह से ही उन्होंने अपने भाइयों सहित द्रोपदी से विवाह किया था। 

कौरवों द्वारा बार बार अपमानित होने पर भी उन्होंने सदैव अपने भाइयों को शांत रहने की आज्ञा दी।  दुर्योधन की प्रत्येक गलतियों को सदैव क्षमा करते रहे वरणावत में दुर्योधन के षड्यंत्र को चुपचाप सहन किया और अपने भाइयों सहित जान बचाकर चुपचाप वन की ओर चले गए। 

धर्मराज युधिष्ठिर ने खाण्डवप्रस्थ में इन्द्रप्रस्थ नामक एक सुंदर नगर बसाया। जहाँ पर राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। समस्त भारतवर्ष के सभी राजागण तथा मंत्रीगण इस यज्ञ में सम्मिलित हुए। 

धूर्त क्रीड़ा में अपना सबकुछ यहाँ तक की अपनी पत्नी और भाइयों को भी हार जाने के बावजूद चुपचाप दुर्योधन के अपमान को सहते रहे। और शान्तिपूर्ण बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञात वास स्वीकार कर लिया। अज्ञातवास के दौरान विराटनगर में राजा विराट के सेवक के रुप में काम किया। अपने भाइयों तथा पत्नी को ऐसी दशा में देखकर क्या उनका मन तनिक भी द्रवित न हुआ होगा।  लेकिन अपने धर्म तथा स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्होंने अनेक कष्टों को सहा। वनवास के दौरान गन्धर्वों द्वारा दुर्योधन तथा हस्तिनापुर की स्त्रियों के बंधक बनाये जाने पर युधिष्ठिर ने स्वयं अपने धर्म तथा वंश की रक्षा के लिए अर्जुन को मदद का आदेश दिया। धन्य हैं ऐसे क्षमाशील नर। 

यक्ष द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देकर इन्होंने अपनी बुद्धिमता का परिचय दिया फलस्वरूप प्रसन्न होकर यक्ष ने किसी एक भाई को जीवित करने की बात कही तब धर्मराज ने बड़े ही शालीनता से माता माद्री के एक पुत्र के जीवन को मांगा जिससे युधिष्ठिर की धर्मनिष्ठा तथा विद्वता का स्पष्ट परिचय मिलता है। 

जब वनवास की अवधि पूरी हो गयी तो दुर्योधन ने युधिष्ठिर के राज्य को वापस करने से इंकार कर दिया। युधिष्ठिर ने शांति से अपने राज्य को प्राप्त करने के प्रयास किए लेकिन जब वे विफल रहे तो युद्ध का मार्ग अपनाया। 

युधिष्ठिर ने अपने जीवन में एकमात्र पाप किया था जो कि महाभारत युद्ध के 15वें दिन बोला गया आधा झूठ। 

युद्ध के पश्चात 36 वर्षों तक युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर के सम्राट के रूप में हस्तिनापुर की सेवा की। उन्होंने कृष्ण और व्यास की आग्रह पर अश्वमेध यज्ञ किया। 


Tuesday, January 26, 2021

महाभारत युद्ध मे संजय कौन थे

संजय महर्षि वेदव्यास जी के शिष्य थे। वे धृतराष्ट्र की राज्यसभा के सम्मानित सदस्यों में से एक थे। ये विद्वान गावाल्गण नामक सूत के पुत्र थे। संजय विनम्र और धार्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे। कहा जाता है कि, संजय श्रीकृष्ण के परमभक्त थे। संजय सदैव महाराज धृतराष्ट्र को सलाह मशवरा देते रहते थे और समय समय पर धृतराष्ट्र पुत्रों के अनैतिक कार्यों के प्रति सचेत करते रहते थे।  संजय सत्य के पक्षधर थे। 

संजय को श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा दिव्य दृष्टि का वरदान प्राप्त था।  संजय ने सम्पूर्ण महाभारत युद्ध को स्वंय अपनी दिव्य दृष्टि से देखा था और महाराज धृतराष्ट्र को सम्पूर्ण युद्ध वृतांत कह सुनाया था। 

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश भी संजय ने स्वयं श्रवण किया था। संजय ने अपनी दिव्य दृष्टि से श्रीकृष्ण के विराट स्वरुप का भी दर्शन किया था।

महाभारत युद्ध के पश्चात संजय युधिष्ठिर के राज्य में निवास करते थे। धृतराष्ट्र, गांधारी तथा कुन्ती के साथ इन्होंने भी सन्यास धर्म को ग्रहण कर लिया था।  पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार धृतराष्ट्र की मृत्यु के पश्चात संजय हिमालय की ओर चले गए थे।

लेखन : मिनी

 

महाभारत के पात्रो के बारे मे जानिए


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महर्षि वाल्मीकि का जीवन परिचय


भारत ऋषि-मुनियों और संतों तथा महान पुरुषों का देश रहा है। भारत की भूमि पर अनेक परमवीर और पराक्रमीयों ने जन्म लेकर भारत की भूमि को गौरवान्वित किया है। भारत की विद्वता इसी बात से सिद्ध होती है कि भारत को सोने की चिड़िया और विश्व गुरु आदि नाम से भी जाना जाता है। यही कारण है कि भारत की शिक्षा, ज्ञान का अनुकरण देश-विदेश में किया जाता रहा है। आदिकाल से ही भारत – भूमि पर ऐसे ऐसे महाकाव्य अथवा ग्रंथों की रचना हुई है, उसके समानांतर कोई दूसरा साहित्य भी नहीं है।

वाल्मीकि जी कि रामायण के रचियता थे, इनकी महान रचना से हमें महाग्रन्थ रामायण का सुख मिला। यह एक ऐसा ग्रन्थ हैं जिसने मर्यादा, सत्य, प्रेम, भातृत्व, मित्रत्व एवम सेवक के धर्म की परिभाषा सिखाई। वाल्मीकि जी संस्कृत भाषा के आदि कवि और आदि काव्य ‘रामायण’ के रचयिता के रूप में सुप्रसिद्ध हैं।

वाल्मीकि ऋषि वैदिक काल के महान ऋषि बताए जाते हैं। धार्मिक ग्रंथ और पुराण अनुसार वाल्मीकि नें कठोर तप अनुष्ठान सिद्ध कर के महर्षि पद प्राप्त किया था। परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा और आशीर्वाद पाकर वाल्मीकि ऋषि नें भगवान श्री राम के जीवनचरित्र पर आधारित महाकाव्य रामायण की रचना की थी। ऐतिहासिक तथ्यों के मतानुसार आदिकाव्य श्रीमद वाल्मीकि रामायण जगत का सर्वप्रथम काव्य था। महर्षि वाल्मीकि नें महाकाव्य रामायण की रचना संस्कृत भाषा में की थी। वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए परन्तु वे एक ज्ञानी केवट थे, वे कोई ब्राह्मण नही थे

वाल्मीकि ऋषि का  बचपन –

माना जाता है कि वाल्मीकि जी महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र प्रचेता की संतान हैं उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था बचपन में उन्हे एक भील चुरा ले गया था। जिस कारण उनका लालन-पालन भील प्रजाति में हुआ। इसी कारण वह बड़े हो कर एक कुख्यात डाकू – डाकू रत्नाकर बने और उन्होंने जंगलों में निवास करते हुए अपना काफी समय बिताया।

रत्नाकर से वाल्मीकि तक का सफर –

भील प्रजाति में पले-बढ़े रत्नाकर राजा के राज्य में सैनिक हुआ करते थे। साथी सैनिकों का युद्ध बंदियों के साथ अच्छा आचरण न होने के कारण रत्नाकर ने विद्रोह किया। इस विद्रोह में उनके राजा ने सीधी शत्रुता मोल ली और रत्नाकर को दंड देने के लिए घोषणा की जिसके कारण उन्हें जंगल में छिपकर रहना पड़ा। अपनी आजीविका चलाने के लिए उन्हें राहगीरों से लूटपाट करना पड़ता था। यही उनके नाम के पहले डाकू शब्द लगने का कारण था। डाकू रत्नाकर लोगों को लूट कर अपना गुजारा करते थे। कई बार वह लोगों की हत्या भी कर देते थे। इसी पाप कर्म में लिप्त रत्नाकर जब एक बार जंगल में किसी नए शिकार की खोज में थे तब उनका सामना मुनिवर नारदजी से हुआ। रत्नाकर नें लूटपाट के इरादे से नारद मुनि को बंदी बना लिया। तब नारदजी नें उन्हे रोकते हुए केवल एक सवाल पूछा, “यह सब पाप कर्म तुम क्यों कर रहे हो?” इस सवाल के उत्तर में रत्नाकर नें कहा कि ह यह सब अपने परिवारजन के लिए कर रहा है। तब नारद मुनि बोले –“क्या तुम्हारे इस पाप कर्म के फल भुगतान में भी तुम्हारे परिवारजन तुम्हारे हिस्सेदार बनेंगे?” इसपर रत्नाकर नें बिना सोचे ‘हां’ बोल दिया। तब नारद जी नें रत्नाकर से कहा की एक बार अपने परिवार वालों से पूछ लो, फिर में तुम्हें अपना सारा धन और आभूषण स्वेच्छा से अर्पण कर के यहाँ से चला जाऊंगा। रत्नाकर नें उसी वक्त अपने एक-एक स्वजन के पास जा कर, अपने पाप का भागीदार होने की बात पूछी। लेकिन किसी एक नें भी हामी नहीं भरी। इस बात से डाकू रत्नाकर को बहुत दुख हुआ और आघात भी लगा। इसी घटना से उसका हृदय परिवर्तन हो गया। रत्नाकर नें इस प्रसंग के बाद पाप कर्म त्याग दिये और जप तप का मार्ग अपना लिया। फिर कई वर्षों की कठिन तपस्या के फल स्वरूप उन्हे महर्षि पद प्राप्त हुआ।

महर्षि वाल्मीकि जयंती महोत्सव

देश भर में महर्षि वाल्मीकि की जयंती को श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस अवसर पर शोभायात्राओं का आयोजन भी होता है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित पावन ग्रंथ रामायण में प्रेम, त्याग, तप व यश की भावनाओं को महत्व दिया गया है। वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना करके हर किसी को सद्‍मार्ग पर चलने की राह दिखाई। इस अवसर पर वाल्मीकि मंदिर में पूजा अर्चना भी की जाती है तथा शोभायात्रा के दौरान मार्ग में जगह-जगह के लोग इसमें बडे़ उत्साह के साथ भाग लेते हैं। झांकियों के आगे उत्साही युवक झूम-झूम कर महर्षि वाल्मीकि के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। महर्षि वाल्मीकि को याद करते हुए इस अवसर पर उनके जीवन पर आधारित झांकियां निकाली जाती हैं व राम भजन होता है।

भारतीय संस्कृति के सत्य स्वरूप का गुणगान करने, जीवन का अर्थ समझाने, व्यवहार की शिक्षा से ओत-प्रोत ‘वाल्मीकि-रामायण’ एक महान् आदर्श ग्रंथ है। उसमें भारतीय संस्कृति का स्वरूप कूट-कूट कर भरा है। आदिकवि भगवान वाल्मीकि जी ने श्रीराम चंद्र जी के समस्त जीवन-चरित को हाथ में रखे हुए आंवले की तरह प्रत्यक्ष देखा और उनके मुख से वेद ही रामायण के रूप में अवतरित हुए।

वेद: प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना॥

‘रामायण कथा’ की रचना भगवान वाल्मीकि जी के जीवन में घटित एक घटना से हुई।

” मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥”

एक बार महर्षि वाल्मीक एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा। इस श्लोक के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि ने क्रौंच का शिकार करने वाले व्यक्ति को श्राप दिया।

यह श्लोक महर्षि के मन मस्तिष्क में सदैव गुंजायमान रहा क्योंकि उन्होंने आज से पूर्व उन्होंने इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। जब प्रत्येक शब्द का गणना किया गया तो 8-8 अक्षरों से यह छंद बंद हो गया।  जिसे लय दिया जाना सुलभ हो गया। इसको गाया जा सकता था और उच्च स्वर में वाचन भी किया जा सकता था। महर्षि को यह ज्ञात था कि उन्हें राम के जीवन पर महाकाव्य की रचना करनी है। उन्हें रचना करने की विधि ज्ञात नहीं थी, इस छंद के माध्यम से उन्होंने पूरे महाकाव्य की रचना ब्रह्मा जी के मार्गदर्शन से की।

ब्रह्मा जी ने स्वयं महर्षि बाल्मीकि को आश्रम में प्रकट होकर उन्हें राम–सीता के जीवन में होने वाले घटनाओं को करुण रस में लिखने को कहा। इससे पूर्व अनेक रसों में यह घटना घट चुकी थी, आगे की घटना करुण रस प्रधान थी। जिसमें सीता-राम के विरह की वर्णन को जीवंत रूप देना था। आगे की सभी घटनाएं बिरह अवस्था में व्यतीत करनी थी, जिसमें करुण रस की प्रधानता थी। इस करुण रस में भी उन्होंने मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। सीताराम ने कभी भी अपने मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया कितनी ही परिस्थितियां उनके विपरीत रही।

लेखन : चांदनी