भारत भूमि सदैव से ही ऋषि मुनियों की तपस्थली रही है। जहाँ अनेक विद्वानों तथा तपस्वियों ने जन्म लिया और अपने ज्ञान तथा तप से भारत भूमि को गौरवान्वित किया। महर्षि रमन भी एक ऐसा ही आध्यात्मिक नाम है जिसे जानने के लिए व्यक्ति को आध्यात्म को समझना पडेगा। मानव शरीर में आत्मा का निवास होता है। यह सर्वविदित है लेकिन आत्मा का साक्षात्कार कर पाना सबके बस में कहाँ।
महर्षि रमन का जन्म तिरुचुली मद्रास में 1879 को हुआ था। इनके पिता का ना सुन्दरम् अय्यर और माता का अलगम्मल था। महर्षि रमन की प्रारंभिक शिक्षा तिरुचुली और दिंदिगुल में हुई।
कहते हैं अरुणाचल का नाम सुनकर महर्षि अरुणाचल की ओर आकर्षित हुए। वे अक्सर प्रार्थना तथा ध्यान किया करते थे। अरुणाचल का परिचय प्राप्त करने के पश्चात वे तप के उद्देश्य से वहाँ पहुंचे और शिखासूत्र त्याग कौपीन धारण कर सहस्त्रस्तंभ कक्ष में तप में रत हो गये। वे तप करने पठाल लिंग गुफा में भी गये जो चीटियों, छिपकलियों तथा अन्य कीटों से भरी हुई थी। उन्होंने 25 वर्षों तक तप किया और उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई।
संस्कृत के महान विद्वान 'गणपति शास्त्री' ने उन्हें 'रामनन्' और 'महर्षि' की उपाधियाँ प्रदान की।
अप्रैल 1950 को महर्षि रमन चिरनिद्रा में विलीन हो गये।
महर्षि रमन की शिक्षायें तथा उपदेश:
महर्षि रमन के अनुसार,
"यह प्रतिमान जगत् विचार के सिवाय कुछ भी नहीं है। जब मन सभी प्रकार के विचारों से विमुक्त हो जाता है, उस समय व्यक्ति की दृष्टि से यह जगत -प्रपंच भी ओझल हो जाता है, और मन निजानंद का भोग करता है। इसके विपरीत, जब जगत दिखाई देता है। अर्थात् विचार प्रकट होने लगते हैं, उस समय मन दर्द और पीड़ा का अनुभव करने लगता है।"
किसी मनुष्य को अपने उन व्यक्तिगत स्वार्थों को त्याग देना चाहिए जो उसे इस नश्वर जगत से बांध देता है। मिथ्या अहंकार को त्याग देना ही सच्चा अहंकार है।
प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः दिव्य ओजस्वी है। जो कुछ दुर्बल और अशुभ दिख रहे हैं, वे उसकी आदतें वासनाएं और विचार हैं, किन्तु वह स्वयं वैसा नहीं है।
कर्ममय जीवन का परित्याग करने की आवश्यकता नहीं है। यदि आप हर दिन ध्यान करें तो आप अपने जीवन के कर्तव्यों को आसानी से जारी रख सकते हैं।
मन के सात्विक गुणों को विकसित करने का सबसे अनुकूल तरीका सर्वोत्कृष्ट आचार नीति है आहार का नियमन, अर्थात् केवल सात्विक आहार ग्रहण करना, वह भी परिमित मात्रा में।
लेखन : मिनी
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