भारतीय जनमानस में कर्ण की छवि एक ऐसे महायोद्धा की है जो सदैव प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। क्षत्रिय की संतान होकर भी सदैव सूतपुत्र के रूप में तिरस्कृत होता रहा।
कर्ण का जन्म भगवान सूर्य के आशीर्वाद से हुआ था जो कि वास्तविक रूप से माता कुन्ती तथा भगवान सूर्य के पुत्र थे। लेकिन उनका पालन पोषण एक सूत दंपति ने किया। जिसने कर्ण को नदी से प्राप्त किया था। कुंवारी अवस्था में ही कुन्ती ने कर्ण को जन्म दिया था। लोक लाज के भय से उन्होंने कर्ण को नदियों में प्रवाहित कर दिया।
कर्ण ने भगवान परशुराम से शिक्षा प्राप्त की थी। कर्ण शस्त्र विद्या में कुशल एवं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों में एक थे।परन्तु कर्ण को अपने गुरु परशुराम से ही श्राप मिला।परशुराम ने क्रोधित होकर कर्ण को श्राप दे दिया था कि समय आने पर वह अपनी विद्या भूल जायेगा। कर्ण के जीवन की सबसे बड़ी भूल दुर्योधन से मित्रता थी। पर इसे भूल कहें या नियति का कुचक्र कि कर्ण को दुर्योधन से मित्रता के लिए बाध्य होना पड़ा। कर्ण ने वचन दिया था कि जीवन पर्यंत वह दुर्योधन का मित्र रहेगा। क्योंकि वह उसका ऋणी है। द्रोपदी के वस्त्रहरण पर भी कर्ण दुखी था मित्रता के वश में वह चुपचाप रहा। कर्ण संसार के सच्चे मित्र थे। जिन्होंने किसी भी परिस्थिति में अपनी मित्रता नहीं छोड़ी। न ही मित्र के दुराचार में न ही अनाचार में। यह जानने के बावजूद वह पाण्डवों का ज्येष्ठ है उसने अपनी मित्रता का त्याग नहीं किया।
कर्ण को दानवीर कहा जाता है। कोई भी व्यक्ति कर्ण से दान मांगने पर निराश नहीं होता था। कर्ण ने वचन दिया था कि सूर्योदय के समय याचक को मनचाहा दान देगा। उसने इन्द्र को अपना कवच कुंडल तक दान दे दिया। मृत्यु की शय्या पर भी उन्होंने अपनी दानवीरता तथा उदारता का स्पष्ट परिचय दिया और सच्चे दानवीर की तरह अपना स्वर्णदंत दान किया।कुरूक्षेत्र के मैदान में युद्ध के दौरान कर्ण के रथ का पहिया जमीन में फंस जाने पर कर्ण उन्हें निकालने का प्रयत्न करने लगे। जिसका लाभ उठाकर अर्जुन ने भगवान कृष्ण के आदेश पर कर्ण का वध कर दिया।और अस्त हो गया वह सूर्य, शूरवीर, दानवीर कर्ण जिसकी अमर गाथा इतिहास में सदैव स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहेगी।
लेखन : मिनी