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Friday, February 19, 2021

जीवन परिचय : स्वामी दयानंद सरस्वती

भारतभूमि सदैव से ही महान विभूतियों की जन्मस्थली और कर्मस्थली रही है ये भारत भूमि यूँ ही विश्व भर में प्रसिद्ध नहीं है इस पावन भूमि की संतानों ने अपने अद्भुत कार्यों द्वारा इस भूमि का परचम सर्वेसर्वा लहराया है। 

महर्षि दयानंद सरस्वती आदर्शवाद के उच्च कोटि के विद्वान थे उनमें यथार्थवाद की सहज प्रवृत्ति थी अपनी मातृभूमि की सेवा के प्रति अनन्य उत्साह था कर्तव्य के प्रति सच्ची निष्ठा थी। 

महर्षि दयानंद का जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा, गुजरात में हुआ था महर्षि दयानंद के बचपन का नाम 'मूलशंकर' था इनके पिताजी एक समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्तित्व के थे और उनका ताल्लुक ब्राह्मण परिवार से था महर्षि दयानंद का रूझान बचपन से ही वेदों और शास्त्रों के तरफ था एक बार शिवरात्रि के दिन महर्षि अपने पूरे परिवार के साथ मन्दिर में पूजा करने गये थे वहाँ पर उन्होंने देखा कि एक चूहा भगवान को चढ़ाये हुए प्रसाद को खा रहा है और उनके मन में ईश्वर के प्रति सन्देह हुआ और इसी के प्रभाव से उनके मन में सत्य खोज की भावना घर कर गयी 1846 ई० को सत्य की खोज के लिए इन्होंने गृह त्याग दिया महर्षि दयानंद की मुलाकात गुरु विरजानन्द से हुई जिनके तत्वावधान में महर्षि दयानंद ने वेद वेदांग तथा शास्त्रों का अध्ययन किया

महर्षि दयानंद सरस्वती को समाज सुधार आंदोलन का प्रणेता कहा जाता है तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए अपना अहम योगदान दिया अन्धविश्वास व पाखंड आदि का घोर विरोध किया जाति व्यवस्था की कटु आलोचना की स्त्री शिक्षा तथा विधवा विवाह के पक्षधर और सती प्रथा तथा बाल विवाह के घोर विरोधी थे महर्षि दयानंद तैत्रवाद के समर्थक थे उन्होंने वेदों पर भाष्य लिखे 'सत्यार्थ प्रकाश' उनकी बड़ी ही महत्वपूर्ण और अमर कृति मानी जाती है 'संस्कार विधि' और 'ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका' इनकी उल्लेखनीय कृतियों में से एक है। 

1875 ई० को महर्षि दयानंद जी ने गिरगांव मुम्बई में 'आर्यसमाज' नामक संस्था की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य जनकल्याण था। 

भारतीय जनमानस में महर्षि दयानंद जी ने अपनी अमिट छाप छोड़ी वर्षों से बिखरे हुए समाज को एकता के सूत्र में बांधने का महत्वपूर्ण कार्य किया 'वेदों की ओर लौटो'

नारा देकर लोगों में वेदों के प्रति विश्वास प्रकट किया उनके अद्भुत कार्यों, विचारों,और सुधारों को लोग अनन्य उत्साह से सुनते और पढ़ते हैं उनके किए गए कार्य सदैव इस जनमानस में देदीप्यमान रहेंगे। 

30 अक्टूबर 1883 ई० को देशभक्ति से परिपूर्ण यह ज्योति सदैव के लिए अस्त हो गयी। 

लेखन : मिनी