"जा पर दीनानाथ ढ़रैं।
सोई कुलीन बड़ौ सुन्दर, सोइ जा पर कृपा करैं।"
अपनी काव्यप्रतिभा की ज्योति से हिन्दी साहित्य जगत को ज्योतिष्मान करने वाले सूरदास सगुण भक्तिधारा के कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं। इन्होंने कृष्ण की बाल लीला की ऐसी रसपूर्ण अविरल धारा प्रवाहित की, जिसका साहित्य जगत में कोई तोड़ ही नहीं है।
सूरदास के जन्म तथा जन्म स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। किन्तु साक्ष्यों के आधार पर अधिकांश विद्वानों ने सूरदास का जन्म 1478 ई० माना है। सूरदास के जन्मान्ध होने के विषय में भी अनेक मत प्रचलित हैं ।सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य माने जाते हैं।
सूरदास के काव्य का मुख्य विषय कृष्ण भक्ति है। 'भागवत' पुराण को उपजीव्य मानकर राधा कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन 'सूरसागर' में किया गया है। सूरसागर के दशम स्कन्ध में 3632 पद हैं जो कि कृष्ण भक्ति काव्य का गौरव और सूरसाहित्य की अनुपम धरोहर है।
सूरदास द्वारा रचित रचनाओं की संख्या पच्चीस मानी जाती थी। 'सूरसागर', 'सूरसारावली', 'साहित्यलहरी' आदि। सूरसागर एवं साहित्य लहरी इनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है।
श्रीकृष्ण के बाल्यावस्था का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है। सूर ने कृष्ण चरित्र के उन भावनात्मक लीलाओं का वर्णन किया है, जिसमें उनकी अन्तरात्मा की गहरी अनुभूति हुई है। सूर की दृष्टि कृष्ण के लोक- रंजक रूप पर अधिक पड़ी है। सूर वात्सल्य भाव-चित्रण में अद्वितीय हैं। बालक की विविध चेष्टाओं, क्रियाकलापों, नटखट रूप, विनोद, मातृहृदय की भावनाओं, अभिलाषाओं का मनोरम वर्णन प्रस्तुत किया है।
कर पग गहि अंगुठा मुख मेलत।
प्रभु पौढ़े पालनैं अकेले, हरषि- हरषि अपने रंग खेलत।।
भक्ति और श्रृंगार में सूर अद्वितीय हैं। श्रृंगार के दोनों पक्षों, वियोग और संयोग का 'भ्रमरगीत' में अद्भुत वर्णन मिलता है।
बिनु गोपाल बैरनि भई कुंजैं।
तब वै लता लगति तनु सीतल अब भई विषम अनल की पुंजैं।।
भ्रमरगीत केवल दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता का नहीं अपितु काव्य के श्रेष्ठ उपादानों से युक्त है। सगुण भक्ति का ऐसा सुन्दर प्रतिपादन अत्यंत दुर्लभ है।
ऊधौ मन न भए दस बीस।
एक हुतौ सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस।।
1853 ई० में चन्द्रसरोवर के समीप पारसौली ग्राम में श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते हुए इनकी मृत्यु हो गई। "खंजन नैन रूप रस माते" पद का गान करते हुए अपने भौतिक शरीर का परित्याग कर दिया।
मेरौ मन अनंत कहाँ सुख पावै।
जैसें उड़ि जहाज कौ पंक्षी, फिरि जहाज पर आवै।। लेखन : मिनी
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