Hindu religious vedic vichar manch in Hindi
Tuesday, January 26, 2021
महाभारत के पात्रो के बारे मे जानिए
महर्षि वाल्मीकि का जीवन परिचय
वाल्मीकि जी कि रामायण के रचियता थे, इनकी महान रचना से हमें महाग्रन्थ रामायण का सुख मिला। यह एक ऐसा ग्रन्थ हैं जिसने मर्यादा, सत्य, प्रेम, भातृत्व, मित्रत्व एवम सेवक के धर्म की परिभाषा सिखाई। वाल्मीकि जी संस्कृत भाषा के आदि कवि और आदि काव्य ‘रामायण’ के रचयिता के रूप में सुप्रसिद्ध हैं।
वाल्मीकि ऋषि वैदिक काल के महान ऋषि बताए जाते हैं। धार्मिक ग्रंथ और पुराण अनुसार वाल्मीकि नें कठोर तप अनुष्ठान सिद्ध कर के महर्षि पद प्राप्त किया था। परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा और आशीर्वाद पाकर वाल्मीकि ऋषि नें भगवान श्री राम के जीवनचरित्र पर आधारित महाकाव्य रामायण की रचना की थी। ऐतिहासिक तथ्यों के मतानुसार आदिकाव्य श्रीमद वाल्मीकि रामायण जगत का सर्वप्रथम काव्य था। महर्षि वाल्मीकि नें महाकाव्य रामायण की रचना संस्कृत भाषा में की थी। वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए परन्तु वे एक ज्ञानी केवट थे, वे कोई ब्राह्मण नही थे।
वाल्मीकि ऋषि का बचपन –
माना जाता है कि वाल्मीकि जी महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र प्रचेता की संतान हैं। उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था। बचपन में उन्हे एक भील चुरा ले गया था। जिस कारण उनका लालन-पालन भील प्रजाति में हुआ। इसी कारण वह बड़े हो कर एक कुख्यात डाकू – डाकू रत्नाकर बने और उन्होंने जंगलों में निवास करते हुए अपना काफी समय बिताया।
रत्नाकर से वाल्मीकि तक का सफर –
भील प्रजाति में पले-बढ़े रत्नाकर राजा के राज्य में सैनिक हुआ करते थे। साथी सैनिकों का युद्ध बंदियों के साथ अच्छा आचरण न होने के कारण रत्नाकर ने विद्रोह किया। इस विद्रोह में उनके राजा ने सीधी शत्रुता मोल ली और रत्नाकर को दंड देने के लिए घोषणा की जिसके कारण उन्हें जंगल में छिपकर रहना पड़ा। अपनी आजीविका चलाने के लिए उन्हें राहगीरों से लूटपाट करना पड़ता था। यही उनके नाम के पहले डाकू शब्द लगने का कारण था। डाकू रत्नाकर लोगों को लूट कर अपना गुजारा करते थे। कई बार वह लोगों की हत्या भी कर देते थे। इसी पाप कर्म में लिप्त रत्नाकर जब एक बार जंगल में किसी नए शिकार की खोज में थे तब उनका सामना मुनिवर नारदजी से हुआ। रत्नाकर नें लूटपाट के इरादे से नारद मुनि को बंदी बना लिया। तब नारदजी नें उन्हे रोकते हुए केवल एक सवाल पूछा, “यह सब पाप कर्म तुम क्यों कर रहे हो?” इस सवाल के उत्तर में रत्नाकर नें कहा कि ह यह सब अपने परिवारजन के लिए कर रहा है। तब नारद मुनि बोले –“क्या तुम्हारे इस पाप कर्म के फल भुगतान में भी तुम्हारे परिवारजन तुम्हारे हिस्सेदार बनेंगे?” इसपर रत्नाकर नें बिना सोचे ‘हां’ बोल दिया। तब नारद जी नें रत्नाकर से कहा की एक बार अपने परिवार वालों से पूछ लो, फिर में तुम्हें अपना सारा धन और आभूषण स्वेच्छा से अर्पण कर के यहाँ से चला जाऊंगा। रत्नाकर नें उसी वक्त अपने एक-एक स्वजन के पास जा कर, अपने पाप का भागीदार होने की बात पूछी। लेकिन किसी एक नें भी हामी नहीं भरी। इस बात से डाकू रत्नाकर को बहुत दुख हुआ और आघात भी लगा। इसी घटना से उसका हृदय परिवर्तन हो गया। रत्नाकर नें इस प्रसंग के बाद पाप कर्म त्याग दिये और जप तप का मार्ग अपना लिया। फिर कई वर्षों की कठिन तपस्या के फल स्वरूप उन्हे महर्षि पद प्राप्त हुआ।
महर्षि वाल्मीकि जयंती महोत्सव
देश भर में महर्षि वाल्मीकि की जयंती को श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस अवसर पर शोभायात्राओं का आयोजन भी होता है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित पावन ग्रंथ रामायण में प्रेम, त्याग, तप व यश की भावनाओं को महत्व दिया गया है। वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना करके हर किसी को सद्मार्ग पर चलने की राह दिखाई। इस अवसर पर वाल्मीकि मंदिर में पूजा अर्चना भी की जाती है तथा शोभायात्रा के दौरान मार्ग में जगह-जगह के लोग इसमें बडे़ उत्साह के साथ भाग लेते हैं। झांकियों के आगे उत्साही युवक झूम-झूम कर महर्षि वाल्मीकि के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। महर्षि वाल्मीकि को याद करते हुए इस अवसर पर उनके जीवन पर आधारित झांकियां निकाली जाती हैं व राम भजन होता है।
भारतीय संस्कृति के सत्य स्वरूप का गुणगान करने, जीवन का अर्थ समझाने, व्यवहार की शिक्षा से ओत-प्रोत ‘वाल्मीकि-रामायण’ एक महान् आदर्श ग्रंथ है। उसमें भारतीय संस्कृति का स्वरूप कूट-कूट कर भरा है। आदिकवि भगवान वाल्मीकि जी ने श्रीराम चंद्र जी के समस्त जीवन-चरित को हाथ में रखे हुए आंवले की तरह प्रत्यक्ष देखा और उनके मुख से वेद ही रामायण के रूप में अवतरित हुए।
वेद: प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना॥
‘रामायण कथा’ की रचना भगवान वाल्मीकि जी के जीवन में घटित एक घटना से हुई।
” मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥”
एक बार महर्षि वाल्मीक एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा। इस श्लोक के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि ने क्रौंच का शिकार करने वाले व्यक्ति को श्राप दिया।
यह श्लोक महर्षि के मन मस्तिष्क में सदैव गुंजायमान रहा क्योंकि उन्होंने आज से पूर्व उन्होंने इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। जब प्रत्येक शब्द का गणना किया गया तो 8-8 अक्षरों से यह छंद बंद हो गया। जिसे लय दिया जाना सुलभ हो गया। इसको गाया जा सकता था और उच्च स्वर में वाचन भी किया जा सकता था। महर्षि को यह ज्ञात था कि उन्हें राम के जीवन पर महाकाव्य की रचना करनी है। उन्हें रचना करने की विधि ज्ञात नहीं थी, इस छंद के माध्यम से उन्होंने पूरे महाकाव्य की रचना ब्रह्मा जी के मार्गदर्शन से की।
ब्रह्मा जी ने स्वयं महर्षि बाल्मीकि को आश्रम में प्रकट होकर उन्हें राम–सीता के जीवन में होने वाले घटनाओं को करुण रस में लिखने को कहा। इससे पूर्व अनेक रसों में यह घटना घट चुकी थी, आगे की घटना करुण रस प्रधान थी। जिसमें सीता-राम के विरह की वर्णन को जीवंत रूप देना था। आगे की सभी घटनाएं बिरह अवस्था में व्यतीत करनी थी, जिसमें करुण रस की प्रधानता थी। इस करुण रस में भी उन्होंने मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। सीताराम ने कभी भी अपने मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया कितनी ही परिस्थितियां उनके विपरीत रही।
लेखन : चांदनी
Monday, January 25, 2021
विदुर कौन थे?
विदुर महाभारत के केन्द्रीय पात्रों में से एक थे। वे हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री थे तथा धृतराष्ट्र और पाण्डु के भाई थे।
विदुर का जन्म भी वेदव्यास के वरदान स्वरूप हुआ था, लेकिन इनकी माता एक दासी थीं।
महात्मा विदुर को धर्मराज का अवतार भी माना जाता है। कहते हैं कि मांडव्य ऋषि ने धर्मराज को श्राप दे दिया था इसी कारणवश सौ वर्ष पर्यंत शूद्र बनकर रहे।
राजा देवक के यहाँ एक अनुपम सुन्दरी दासी कन्या थी जिसके साथ महामहिम भीष्म ने विदुर का विवाह सम्पन्न कराया था।
महात्मा विदुर धर्म और नीति के ज्ञानी थे। इन्होंने स्वयं सदा सत्य का साथ दिया। कौरव तथा पाण्डवों के आपसी द्वेष को देखते हुए इन्होंने सदैव महाराज धृतराष्ट्र को सचेत किया था। पर पुत्र प्रेम में अंधे धृतराष्ट्र को सत्य असत्य का बोध कहाँ। विदुर ने सदैव धृतराष्ट्र पुत्रों के षड्यंत्र से पाण्डु पुत्रों की रक्षा की थी। कुल वधू द्रोपदी के अपमान की भी उन्होंने निंदा की थी और राज्य सभा का त्याग कर दिया था।
महात्मा विदुर ने ही धृतराष्ट्र और माता गांधारी को वानप्रस्थ की आज्ञा दी थी। महात्मा विदुर ने सभी तीर्थ स्थलों का भ्रमण किया था। युधिष्ठिर के अनुरोध पर उन्होंने अपनी तीर्थ यात्रा का वर्णन सुनाया था।
लेखन : मिनीजानते हैं महारानी कुन्ती और गांधारी के विषय में।
यदुवंशी राजा शूरसेन की पृथा नामक सुन्दर कन्या थी जिसे उन्होंने अपनी बुआ के सन्तान हीन पुत्र कुन्तिभोज को गोद दे दिया था। पृथा (कुन्ती) के विवाह योग्य होने पर कुन्तिभोज ने उसका स्वयंवर रचाया। उस स्वयंवर में कुन्ती ने वीरवर पाण्डु को अपने वर के रूप में चुना। कुन्ती को महर्षि दुर्वासा ने आशीर्वाद दिया था कि ,'वो किसी भी देवता का आह्वान करके पुत्र की प्राप्ति कर सकती हैं। ' जब महारानी कुन्ती को महाराज पाण्डु के श्राप के बारे में पता चला तो उन्होंने अपने वरदान का उपयोग कर पुत्र की प्राप्ति की। युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन महारानी कुन्ती के ही पुत्र थे।
महारानी गांधारी गांधार नरेश की गुणवान पुत्री थी। महारानी गांधारी को सौ पुत्रों की माता होने का वरदान प्राप्त था।
जब महामहिम भीष्म को गांधारी और उनके वरदान के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होंने यह निश्चय किया कि यह कन्या धृतराष्ट्र के लिए उपर्युक्त रहेगी और उन्होंने गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र के साथ सम्पन्न कराया।
गांधारी को जब इस तथ्य का पता चला कि उनके होने वाले पति जन्मान्ध है तो उन्होंने स्वयं अपने आंखों पर पट्टी बाँध कर अपने पत्नी धर्म का पालन किया| गांधारी के इस त्याग के फलस्वरूप उन्हें तेज की प्राप्ति हुई जिसका उपयोग उन्होंने महाभारत युद्ध में दुर्योधन की रक्षा हेतु किया था पर मूर्ख दुर्योधन माता की आज्ञा का उल्लंघन करते हुये मधुसूदन के भ्रम जाल में फंस गया।
वरदान के फलस्वरूप महारानी गांधारी को सौ पुत्रों की प्राप्ति हुई। इनकी एक कन्या भी थी जिसका विवाह सिन्धु राज के साथ सम्पन्न हुआ था। महारानी गांधारी के सौ पुत्र तो थे पर अफसोस उन्हें धर्म और नीति का तनिक भी ज्ञान था। वे सभी अपने वंश के नाश का कारण बनें।
लेखन : मिनी
Sunday, January 24, 2021
आइये जानते हैं कौन थे धृतराष्ट्र ?
बात जब महाभारत कालीन पात्रों की हो तो इसमें धृतराष्ट्र का नाम न शामिल हो भला ऐसा संभव हो सकता है क्या ?। धृतराष्ट्र राजा शांतनु तथा सत्यवती के प्रपौत्र थे। इनके पिता विचित्रवीर्य तथा माता अम्बिका थी। वेदव्यास के वरदान स्वरूप धृतराष्ट्र का जन्म हुआ था, जो कि जन्मान्ध थे।
इनके जन्मान्ध होने की वजह से ही विदुर की सलाह पर धृतराष्ट्र के छोटे भाई पाण्डु को उत्तराधिकारी बनाया। लेकिन पाण्डु की मृत्यु के पश्चात धृतराष्ट्र को राजगद्दी मिली।
धृतराष्ट्र का विवाह गांधार राज की कन्या गांधारी से सम्पन्न हुआ जिन्हें सौ पुत्रों की माता होने का वरदान प्राप्त था। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे पर अफसोस उन सभी को धर्म और नीति का तनिक भी ज्ञान न था।
धृतराष्ट्र ने भी अपने भतीजों के साथ कभी भी मधुरता का व्यवहार नहीं किया था। महाभारत युद्ध में धृतराष्ट्र का अतुलनीय योगदान था। जीवन के अंत में वानप्रस्थ ग्रहण कर गृह त्याग दिया।
लेखन : मिनीकौन थे महाराज पाण्डु?
महाराज पाण्डु विचित्रवीर्य तथा अम्बालिका के पुत्र थे। इनका जन्म भी वेदव्यास के वरदान स्वरूप हुआ था। ये धृतराष्ट्र के छोटे भाई थे। धृतराष्ट्र के जन्मान्ध होने के कारणवश पाण्डु को राजगद्दी मिली।
महाराज पाण्डु के दो विवाह हुए थे पहला कुन्तीभोज की कन्या पृथा (कुन्ती) के साथ सम्पन्न हुआ था और दूसरा मद्र राज शल्य की बहन माद्री के साथ सम्पन्न हुआ। महाराज पाण्डु के पांच पुत्र थे जिन्हें पांच पांडव कहा जाता है। युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन कुन्ती के पुत्र तथा नकुल और सहदेव माद्री पुत्र थे।
कहा जाता है कि एक बार महाराज पाण्डु वन विहार कर रहे थे हिरण की आशंका में उन्होंने बाण चलाया और उनका बाण इक ऋषि को जा लगा जो अपनी पत्नी के साथ वन में मौजूद थे। मुनि ने महाराज पाण्डु को श्राप दिया कि अगर तुम कभी भी काम के वशीभूत होगे तो तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी, जैसे की मेरी हुई है।
एक बार महाराज पाण्डु तथा माद्री स्वयं को वश में न कर सके और कामवासना कर बैठे, अतः श्राप के कारण महाराज पाण्डु की मृत्यु हो गयी।
लेखन : मिनीSaturday, January 23, 2021
आइये जानते हैं कौन थे भीष्म पितामह ?
दोस्तों, हमने सबने टीवी पर महाभारत जरूर देखी है। बचपन से लेकर आज तक अपने बड़े बुजुर्गों से महाभारत की कहानियों को सुना है। कुछ ने स्वयं महाभारत पढ़ी है। आइये हम जानते हैं पितामह भीष्म के विषय में जिनके त्याग और बलिदान की कहानी है सदियों पुरानी।
देवव्रत यानी भीष्म पितामह कुरू वंश के वीर और प्रतापी राजा महाराज शांतनु के पुत्र और महाराज प्रतीप के प्रपौत्र थे। भीष्म ने भरत वंश की गरिमा और हस्तिनापुर के स्वाभिमान की रक्षा के लिए अतुलनीय योगदान दिया। इनकी माता कोई और नहीं पतित पावनी माँ गंगा थीं, जिन्होंने अपने पुत्र को त्याग और समर्पण की शिक्षा दी। पितामह भीष्म के त्याग और शौर्य की गाथा युगों युगों तक विद्यमान रहेगी।
कहा जाता है कि एक बार महाराज शांतनु निषाद कन्या सत्यवती के रूप एवं सौन्दर्य पर मोहित हो सत्यवती के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। सत्यवती के पिता ने विवाह के लिए शर्त रखी कि, 'जब महाराज शांतनु सत्यवती से उत्पन्न पुत्र को हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनाने का वचन देंगे तभी वह अपनी पुत्री का विवाह करेंगे। ' निषाद की इस शर्त से निराश होकर महाराज शांतनु अपने राज्य वापस लौट आये। लेकिन इसके पश्चात उनकी दशा बहुत ही सोचनीय हो गयी थी। पिता की इस दशा से हैरान परेशान जब भीष्म का इस तथ्य से सामना हुआ तो उन्होंने स्वयं सत्यवती के पिता से मिलकर उन्हें वचन दिया कि, "मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा। "आप इस बात से निश्चिंत होकर अपनी पुत्री का विवाह मेरे पिता से कर दीजिए। पुत्र के इस त्याग और बलिदान से प्रसन्न होकर पिता ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दिया।
पितामह भीष्म ने आजीवन हस्तिनापुर की सेवा की। अपने राज्य की सेवा को ही अपना धर्म माना और अपने कर्तव्य से कभी पीछे नहीं हटे। सत्य के रास्ते से होते हुए अपने कर्तव्य को पूरा किया। कहा जाता है कि इन्होंने सत्य को साबित करने के लिए अपने गुरु परशुराम से भी युद्ध किया था।
आजीवन अपने राज्य की सेवा की। अपने कर्तव्य को निभाया और वचन पर सदैव अडिग रहे। इनका वचन कहीं न कहीं इनकी कमजोरी बनी। महाभारत के युद्ध में वचनबद्ध होकर सत्य होने के बावजूद पाण्डु पुत्रों का साथ न दे सके। अपने राज्य की रक्षा में अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया।
महामहिम भीष्म ने भरत वंश की कीर्ति को ही नहीं अपितु वैभव को भी बढ़ाया। महामहिम के नेतृत्व में हस्तिनापुर भारत वंश के सबसे शक्तिशाली और वैभव सम्पन्न राज्यों में से एक था।
लेखन : मिनी
Friday, January 22, 2021
हिन्दू की परिभाषा आचार्य विनोबा भावे के शब्दों मे
जो वर्णो और आश्रमों की वयवस्था मे निष्ढा रखने वाला गौ-सेवक, श्रतियो (स्त्रीयो) को माता की भांति पूज्य मानने वाला तथा सब धर्मो का आदर करने वाला है, देव मूर्ति की जो अवज्ञा नहीं करता, पुनर्जन्म को मानता है और उससे मुक्त होने की चेष्टा करता है तथा जो सदा सब जीवों के अनुकूल बर्ताव को अपनाता है, वही हिन्दू माना गया हैI हिंसा से उसका चित दुखी होता है, इसलिए उसे हिन्दू कहा गया है I
Thursday, January 21, 2021
जाने कौन थे महाराज शांतनु
महाराज शांतनु कुरु वंश के प्रतापी राजा थे। ये महाराज प्रतीप के पुत्र थे। महाराज प्रतीप की घोर तपस्या के फलस्वरूप शांतनु का जन्म हुआ था। शान्त पिता के पुत्र होने के कारण इनका नाम शांतनु पड़ा।
कहा जाता है कि एक बार महाराज प्रतीप गंगा तट पर तपस्या कर रहे थे। उनके रुप सौन्दर्य से मोहित हो कर देवी गंगा उनकी दाहिनी जंघा पर जा बैठी। महाराज यह देख आश्चर्य में पड़ गये। देवी गंगा ने कहा, 'हे राजन् मैं ऋषि पुत्री गंगा आपसे विवाह की अभिलाषा से आपके पास आयी हूँ।' महाराज प्रतीप ने उत्तर दिया, गंगे तुम मेरी दाहिनी जांघ पर बैठी हो। पत्नी को तो वामांगी होना चाहिए, दाहिनी जांघ तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्र वधु के रूप में स्वीकार करता हूँ।
तत्पश्चात् महाराज शांतनु ने पुत्र प्राप्ति के लिए कठोर तप किया और उन्हें शांतनु के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
युवावस्था में पिता की आज्ञा से महाराज शांतनु ने देवी गंगा से विवाह किया। लेकिन देवी गंगा ने विवाह से पूर्व उनसे यह वचन लिया कि, मैं आपसे विवाह तो करूंगी, लेकिन आपको वचन देना पड़ेगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
देवी गंगा से महाराज शांतनु को आठ पुत्र उत्पन्न हुए थे, लेकिन गंगा ने सात पुत्रों को अपने जल में बहा दिया। और महाराज शांतनु कुछ बोल न सके। लेकिन जब आठवें पुत्र की प्राप्ति हुई तो देवी गंगा फिर से वही करना चाह रही थी लेकिन महाराज शांतनु ने वचन भंग करते हुए उन्हें रोका, हे देवी आपने मेरे सात पुत्रों को यूँ ही जल में प्रवाहित कर दिया और मैं चुप रहा लेकिन आप मेरे इस पुत्र को जीवन दान दे दो। महाराज शांतनु के इस वचन भंग से देवी गंगा रूष्ट होकर पुत्र सहित अन्तर्ध्यान हो गयीं।
तत्पश्चात युवा होने पर अपने पुत्र को लेकर महाराज शांतनु के पास आती हैं और कहती हैं, हे राजन् यह आपका पुत्र देवव्रत है और मैं इसे आपको सौंपती हूँ। यही देवव्रत महाभारत के इतिहास में भीष्म के रुप में प्रसिद्ध हुए।
महाराज शांतनु निषाद कन्या सत्यवती के रूप सौन्दर्य पर आसक्त हो गये थे। महारानी सत्यवती से महाराज शांतनु को चित्रांगदा और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।
Wednesday, January 20, 2021
कोएनराड एल्स्ट का हिदुत्व प्रेम
Friday, January 15, 2021
गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय
तुलसीदास जी का बचपन बड़े ही दुखों में व्यतीत हुआ था। जब तुलसीदास जी बड़े हुए तो उनका विवाह रत्नावली के साथ हो गया। तुलसीदास जी अपनी पत्नी से बहुत ज्यादा प्रेम करते थे। उन्हें अपने इस प्रे्म के कारण एक बार अपनी पत्नी से अपमानित भी होना पड़ा था। जिसके बारे में कहा जाता है कि " लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ता। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत बीता।। अपनी पत्नी की यह बात सुनकर तुलसीदास जी को बड़ा ही दुख हुआ। जिसके बाद उन्होंने प्रभु श्री राम के चरणों में ही अपने जीवन को व्यतीत कर दिया। तुलसीदास जी ने गुरु बाबा नरहरिदास से भी दीक्षा प्राप्त की थी। इनके जीवन का ज्यादातर समय चित्रकूट, काशी और अयोध्या में व्यतीत हुआ था। तुलसीदास जी ने अपने जीवन पर कई स्थानों का भ्रमण किया था और लोगों को प्रभु श्री राम की महिमा के बारे में बताया था। तुलसीदास जी ने अनेकों ग्रंथ और कृतियों की रचना की थी ।
संत तुलसीदास ने शुरू की तीर्थ यात्रा
भगवान श्री राम के भक्ति में पूरी तरह से डूबे तुलसीदास ने कई सारी तीर्थ यात्रा की और यह हर समय भगवान श्री राम की ही बातें लोगों से किया करते। संत तुलसीदास ने काशी, अयोध्या और चित्रकूट में ही अपना सारा समय बिताना शुरू कर दिया। इनके अनुसार जब उन्होंने चित्रकूट के अस्सी घाट पर “रामचरितमानस” को लिखना शुरू की तो उनको श्री हनुमान जी ने दर्शन दिए और उनको राम जी के जीवन के बारे में बताया। तुलसीदास जी ने कई जगहों पर इस बात का भी जिक्र किया हुआ है कि वे कई बार हनुमान जी से मिले थे और एक बार उन्हें भगवान राम के दर्शन भी प्राप्त हुए थे। वहीं तुलसीदास ने भगवान राम के साथ हनुमान जी की भक्ति करने लगे और उन्होंने वाराणसी में भगवान हनुमान के लिए संकटमोचन मंदिर भी बनवाया।
राम
दर्शन
तुलसी दास जी हनुमान की बातों का अनुसरण करते हुए चित्रकूट के रामघाट पर एक आश्रम में रहने लगे और एक दिन कदमगिरी पर्वत की परिक्रमा करने के लिए निकले। माना जाता है वहीं पर उन्हें श्रीराम जी के दर्शन प्राप्त हुए थे। इन सभी घटनाओं का उल्लेख उन्होंने गीतावली में किया है।
तुलसीदास जी द्वारा लिखित ग्रन्थ
श्री रामचरितमानस, सतसई, बैरव रामायण, पार्वती मंगल, गीतावली, विनय पत्रिका, वैराग्य संदीपनी, रामललानहछू, कृष्ण गीतावली, दोहावली और कवितावली आदि है। तुलसीदास जी ने अपने सभी छन्दों का प्रयोग अपने काव्यों में किया है।
इनके प्रमुख छंद हैं दोहा सोरठा चौपाई कुंडलिया आदि, इन्होंने शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का भी प्रयोग अपने काव्यों और ग्रंथो में किया है और इन्होंने सभी रसों का प्रयोग भी अपने काव्यों और ग्रंथों में किया है ,इसीलिए इनके सभी ग्रंथ काफी लोकप्रिय रहे हैं।
लगभग तीन साल में लिखी रामचरितमानस
भगवान राम जी के जीवन पर आधारित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ को पूरा करने में संत तुलसीदास को काफी सारा समय लगा था और इन्होंने इस महाकाव्य को 2 साल 7 महीने और 26 दिन में पूरा किया था। रामचरितमानस में तुलसीदास ने राम जी के पूरे जीवन का वर्णन किया हुआ है। रामचरितमानस के साथ साथ उन्होंने हनुमान चालीसा की भी रचना की हुई है।
संत तुलसीदास जी की मृत्यु
तुलसीदास के निधन के बारे में कहा जाता है कि इनकी मृत्यु बीमारी के कारण हुई थी और इन्होंने अपने जीवन के अंतिम पल वाराणसी के अस्सी घाट में बिताए थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय में विनय-पत्रिका लिखी थी और इस पत्रिका पर भगवान राम ने हस्ताक्षर किए थे। इस पात्रिका को लिखने के बाद तुलसीदास का निधन 1623 में हो गया था।
तुलसीदास के द्वारा लिखी गई रचानाएं और दोहे
- · रामचरितमानस
- · रामलला नहछू
- · बरवाई रामायण
- · पार्वती मंगल
- · जानकी मंगल
- · रामाज्ञा प्रश्न
- · कृष्णा गीतावली
- · गीतावली
- · साहित्य रत्न
- · दोहावली
- · वैराग्य संदीपनी
- · विनय पत्रिका
- · हनुमान चालीसा
- · हनुमान अष्टक
- · हनुमान बहुक
दोहा-1
“दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान, तुलसी दया न छोडिये जब तक घट में प्राण।”
भावार्थ - धर्म, दया भावना से उत्पन्न होती और अभिमान तो केवल पाप को ही जन्म देता हैं, मनुष्य के शरीर में जब तक प्राण हैं, तब तक उसे दया भावना कभी नहीं छोड़नी चाहिए।
दोहा-2
“सरनागत कहूँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि, ते नर पावॅर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि।”
भावार्थ - जो इन्सान अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं वे क्षुद्र और पापमय होते हैं। दरअसल, उनको देखना भी उचित नहीं होता।
दोहा-3
“मुखिया मुखु सो चाहिये खान पान कहूँ एक, पालड़ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।”
लेखन : चांदनीMonday, January 11, 2021
मीराबाई का जीवन परिचय
मीराबाई एक महान कवियित्री, भगवान
श्रीकृष्ण की दीवानी और उनकी परम भक्त थीं। उनका नाम भक्ति-आन्दोलन के सबसे
लोकप्रिय संतों में सुमार है। मीरा के काव्य में कृष्ण भक्ति का अनुपम वर्णन मिलता
है। भगवान कृष्ण को समर्पित उनके भजन, उत्तर
भारत के घर-घर में अत्यंत ही लोकप्रिय है।
आज भी उनके द्वारा रचित भजन बड़ी श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। उनका जन्म, राजस्थान के राजपूत राजघराने में हुआ था। मीराबाई के जीवन से संबंधित कई कथाएँ और किवदंतियां प्रसिद्ध है।अपने पति के आकस्मिक मृत्यु के बाद वे भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त हो गयी। लोकलाज के कारण उन्हें घर से निकाल दिया गया। उनके बाद वे और भी दृढ़ता से कृष्ण भक्ति में तल्लीन हो गयी। मीरा कृष्ण की दीवानी थी, उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति की गहराई अतल है। उन्होंने सामाजिक और पारिवारिक लोक-लाज की प्रवाह किए बगैर कृष्ण को अपना पति माना और उनकी भक्ति में लीन हो गयीं।
मीरा बाई का संक्षिप्त परिचय
जन्म वर्ष – सन 503 ईस्वी
की आसपास
जन्म स्थान – राजस्थान
के मेड़ता
पति का नाम – भोजराज
रचना – नरसी का मायरा, मीरांबाई की पदावली, राग सोरठ के पद, राग गोविंद, गीत गोविंद टीका।
निधन – सन 1557 ईस्वी
मीराबाई के जन्म से सम्बंधित कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनके जन्म वर्ष, जन्म स्थान को लेकर विद्वानों के बीच मतांतर है। प्रचलित कविदंती, कहानी, साहित्य तथा अन्य स्रोतों के मंथन से उनके जीवन से जुड़ी जो कहानी प्रचलित है। आइये मीराबाई के बारें में विस्तार से जानते हैं।
ज्ञात तथ्यों के आधार पर मीराबाई का जन्म, राजस्थान के मेड़ता में सन 1503 ईस्वी के आसपास बताया जाता है। उनका जन्म राजपरिवार में राव दुदाजी के बंशज में हुआ था। मीरा बाई के पिता रतन सिंह राठौड़ एक छोटे से रियासत के शासक थे। बचपन में ही मीराबाई के माता की मृत्यु हो गयी। मीराबाई अपने पिता की इकलौती संतान थी। कहते हैं की उनका पालन-पोषण उनके दादा के सनिध्य में हुआ। उनके दादा जी भगवान विष्णु के परम भक्त थे। इस कारण साधु-महात्मा का उनके घर पर आना-जाना लगा रहता था। आगे चलकर इस भक्ति भावना का प्रभाव उनके जीवन पर भी पड़ा।
मीराबाई का विवाह
मीराबाई की उम्र जब मात्र तेरह साल की थी तब उनका
विवाह कर दिया गया। उनका विवाह सन 1516 ईस्वी
में उदयपुर के राजा महाराणा सांगा के युवराज भोजराज से सम्पन्न हुआ।
सन 1518 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के साथ संघर्ष में
राजकुमार भोजराज घायल हो गया। इस कारण दुर्भागयवस से विवाह के कुछ वर्षों के बाद
सन 1521
ईस्वी में उनके पति भोजराज की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार मीरा अल्पायु में ही विधवा
हो गयी।
इस विपत्ति की घड़ी में वे भगवान श्री कृष्ण की ओर उन्मुख हुई। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार बनाया और कृष्ण भक्ति में लीन हो गयी। धीरे-धीरे इस मिथ्या जगत से उन्हें विरक्त हो गयीं और उन्होंने अपना सारा समय कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया।
संसार से हो गई विरक्ति
कहते हैं की उस बक्त सती प्रथा प्रचलित थी और पति की मृत्यु होने पर पत्नी को भी पति के साथ आग में जलना पड़ता था। मीरा को भी सती करने की कोशिश की गयी। लेकिन वह तैयार नही हुईं। धीरे-धीरे उन्हें इस मिथ्या जगत से विरक्त हो गयीं।
उनका अधिकांश समय साधु-संतों की संगति में भजन में व्यतीत करने लगीं। मीराबाई मंदिरों में जाकर कृष्ण का भजन गाती तथा कृष्ण भक्ति में लीन हो जाती। वे परिवार के लोक-लाज को दरकिनार कर कृष्ण की मूर्ति के सामने भक्तिमद में चूर हो नाचने लगती।
तीर्थ यात्रा पर निकलना
मेड़ता के पतन के बाद मीरा ने गृह त्याग कर तीर्थ
यात्रा पर निकल गयी। सन् 1539 में वे वृंदावन आ गयी जहॉं उनकी मुलाकात
रूप-गोस्वामी से हुई। मीराबाई ने कुछ वर्ष वृंदावन में ही रहकर कृष्ण भक्ति की।
उसके बाद वे सन् 1546 ईस्वी के आस-पास गुजरात में भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका चली गईं। उन्होंने अपना सारा समय कृष्ण भक्ति, साधु संतों के साथ भजन और भक्ति पदों की रचना में व्यतीत करने लगी।
मीराबाई का निधन
कहते हैं की बहुत दिन तक वृन्दावन में समय गुजारने के बाद वे द्वारिका चली गईं। कविदंती है की द्वारका जाकर वे भगवान कृष्ण का भजन करते हुए सन 1560 ईस्वी में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समाहित हो गईं।
मीराबाई की रचनाएँ
भगवान् श्रीकृष्ण के गुणगान में रचित सैकड़ों भजन को मीराबाई के साथ जोड़ा देखा जाता है। लेकिन विद्वानों का मत इससे अलग है। ज्यादातर विद्वान का मत है की मीराबाई ने इनमें से कुछ भजन का ही रचना की थी।बाकी की रचनायें उनके प्रसंशकों द्वारा रचित जान पड़ती है। उनकी काव्य रचना में उनकी आत्मा का रुदन और हास्य दोनो समाहित है। मीरा बाई ने ब्रजभाषा और राजस्थानी में स्फुट पद की ही रचना की।
कुछ विद्वान के अनुसार मीरा बाई के चार प्रमुख रचना मानी जाती है।
गीतगोविंद टीका,
राग गोविंद,
राग सोरठ
नरसी का मायरा।
मीरा के पद के कुछ अंश
हरि आप हरो जन री भीर। द्रोपदी री लाज राखी, आप बढ़ायो चीर। भगत कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।
बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुञ्जर पीर। दासी मीरा लाल गिरधर, हरो म्हारी भीर॥
चाकरी में दरसण पास्यू, सुमरण पास्यू खरची। भाव भगती जागीरी पास्यू, तीनूं बाता सरसी।
मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल वैजंती माला। बिंदरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला।
मीरा बाई के पद और दोहे के अंश
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु कृपा करि अपनायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
जी पाई जग में सभी खोवायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो, पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
लेखन : चांदनीFriday, January 8, 2021
सत्य क्या है?
Saturday, January 2, 2021
परमात्मा कौन है ? माया कौन है ? परमात्मा और माया का क्या सबंध है ?
परमात्मा कौन है ? माया कौन है ? परमात्मा और माया का क्या सबंध है ?
_______________________________________________________परमात्मा जिन्हे 'विधाता' भी कहा जाता है। गूढ़रूप मे ये ही सृष्ट्रि के निर्माता है। आनंद परमात्मा का स्वरुप है। परमात्मा पूरे आकाश मे हमेशा से सर्वज्ञ मौजूद है। अतः जल से भरा हुआ ये संसार श्यामवर्ण ले लिया है। विधाता सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति (सत्ता) है। कल्प के प्रारंभ मे विधाता ही ब्रह्मा जी को सृष्टि बनाने का निर्देश देते है, भगवान विष्णु और भगवान शिव का कार्य भी निर्धारित करते है। विधाता ने ही स्त्री की रचना की, जिसमे कुछ वक्त भी लगा। परमात्मा सगुण और साकार है। सगुण का अर्थ है सत्त्व, रज व तम इन तीनों गुणों से युक्त होना। सत्व, रज, तम तीनों गुणों से युक्त परमात्मा का वह रूप जिसमें अविनाशी जीवात्मा शरीर से बंधी रहती है। सत्त्वगुण बढने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेक शक्ति उत्पन्न होती हैं, रजोगुण के बढने पर लोभ, प्रवृति, स्वार्थ-बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा ये सब उत्पन्न होते हैं। तथा तमोगुण के बढने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियां- ये सब ही उत्पन्न होते हैं। परमात्मा की लीला नहीं होती है।