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Saturday, January 2, 2021

परमात्मा कौन है ? माया कौन है ? परमात्मा और माया का क्या सबंध है ?

परमात्मा कौन है ? माया कौन है ? परमात्मा और माया का क्या सबंध है ?

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परमात्मा जिन्हे 'विधाता' भी कहा जाता है। गूढ़रूप मे ये ही सृष्ट्रि के निर्माता है। आनंद परमात्मा का स्वरुप है। परमात्मा पूरे आकाश मे हमेशा से सर्वज्ञ मौजूद है। अतः जल से भरा हुआ ये संसार श्यामवर्ण ले लिया है। विधाता सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति (सत्ता) है। कल्प के प्रारंभ मे विधाता ही ब्रह्मा जी को सृष्टि बनाने का निर्देश देते है, भगवान विष्णु और भगवान शिव का कार्य भी निर्धारित करते है। विधाता ने ही स्त्री की रचना की, जिसमे कुछ वक्त भी लगा। परमात्मा सगुण और साकार है। सगुण का अर्थ है सत्त्व, रज व तम इन तीनों गुणों से युक्त होना। सत्व, रज, तम तीनों गुणों से युक्त परमात्मा का वह रूप जिसमें अविनाशी जीवात्मा शरीर से बंधी रहती है। सत्त्वगुण बढने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेक शक्ति उत्पन्न होती हैं, रजोगुण के बढने पर लोभ, प्रवृति, स्वार्थ-बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा ये सब उत्पन्न होते हैं। तथा तमोगुण के बढने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियां- ये सब ही उत्पन्न होते हैं। परमात्मा की लीला नहीं होती है।

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।
गीता 13.16
परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर और भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वे ही हैं। परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण जानने का विषय नहीं हैं। सृष्टि के प्रारंभ मे अन्तर्बाह्य स्थित मे रहते है, वे चर है और अचर भी। सूक्ष्म होने से इन्हे पहचाना नहीं जा सकता। वे सुन्दर और अत्यन्त नजदीक भी है।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च
गीता 13.17
वह परमात्मा प्रत्येक शरीर में आकाश के समान अविभक्त है। वह परमात्मा सृष्टि के भूतकाल मे सबको उत्पन्न करनेवाला है। उत्पत्ति के समय प्रभविष्णु और प्रलयकाल में ग्रसिष्णु अर्थात सबका संहार करने वाला
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।
                                                  गीता 7.25
परमात्मा कहते हैं यह मोहित जगत्, मुझ अजन्मा अविनाशी को नहीं जान सकता है। क्योंकि उनके लिए मैं सत्व, रज और तम तीनो गुणों युक्त होकर योगमाया से ढका हुआ रहता हूँ। मै अपनी योगमाया के आवरण मे होने के कारण सबके लिये प्रकट नहीं हूँ। जब आप माया को बाह्य वस्तु के रूप में समझने का प्रयत्न करते हैं तब उसे समझने में अत्यन्त कठिनाई होती है। परन्तु जब आप अध्यात्म दृष्टि से विचार करते हैं अर्थात् अपने ही अन्तकरण में माया किस प्रकार कार्य करती है ऐसा विचार करते हैं तो माया का सिद्धांत स्पष्ट हो जाता है। ऋषियों ने इस अविद्या का जो कि जीव के सब दुखों का कारण है सूक्ष्म अध्ययन किया और यह उद्घाटित किया कि यह तीन गुणों से युक्त है जो मनुष्य को प्रभावित करती हैं। इस माया को समझने के लिए किसी गुरु की नहीं अपितु स्वयं की साधना की जरुरत है। इसे सिर्फ साधना द्वारा ही जाना जा सकता है। जब साधक का क्षुब्ध मन शांत हो जाता है तब आवरण के अभाव में वह मेरा अजन्मा अविनाशी स्वरूप को पहचान लेता है। योगमाया से मोहित यह जगत् मेरे अविकारी (जिसने स्वरुप मे परिवर्तन न होता हो ) स्वरूप को नहीं जानता।
हैनमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः
गीता 11.40 हे सर्व। आपको आगे से भी नमस्कार हो। पीछे से भी नमस्कार हो। सब ओर से ही नमस्कार हो। हे अनन्तवीर्यवान। परम विक्रमवाले आपने सबको समावृत कर रखा है; अतः सब कुछ आप ही हैं। अब हम इस श्लोक का विश्लेषण करते है। 'हे सर्व' का आशय 'परमात्मा' से है। 'आगे से नमस्कार' यहाँ दिशा की बात हो रही है। आगे की दिशा सनातन धर्म मे पूर्व की दिशा मानी जाती है। जबकि आज का विज्ञानं उत्तर दिशा को आगे की दिशा मानता है। अनन्तवीर्यामितविक्रम इस वाक्य मे चार शब्द है। अनन्त +वीर्या+मित+विक्रम, इसे हम अनन्तवीर्या+मितविक्रम पढ़े तो सही होगा। मितविक्रम को अमित विक्रम के रूप मे व्यख्यान किया गया है। इस श्लोक से पता चलता है की परमात्मा न केवल सर्वव्यापक है, अपितु सम्पूर्ण सामर्थ्य एवं विक्रम का स्रोत भी है।
माया कौन है ?
माया द्वारा ही यह सृष्टि निर्मित है। माया विधाता की सहकारिणी शक्ति है। यह न सत है न असत, वह एक अनिर्वचनीय पदार्थ है। विधाता की इच्छा से इसकी उत्पत्ति होती है।
परमात्मा और माया का क्या सबंध है ?
इसे भगवान श्री कृष्ण ने इसे 'योगमाया' कह कर सम्बोधित किया है। योग का मतलब होता है सम्बन्ध। यानि परमात्मा और माया की युक्ति 'योगमाया' है। विधाता स्वप्रकाश है, किन्तु अपनी इच्छा से अपने आप को आवरण युक्त करता है। इस आवरण को माया कहते है। विधाता जिस समय वे आवरण युक्त होते है, उस समय वे आवरण मुक्त भी रह सकते है। इसका आशय का विशेषण समझे - आवरण (माया) से 'युक्त' आत्मा है अर्थात जीव और आवरण (माया) से मुक्त है ब्रह्म। सांसारिक वस्तुओ के प्रति हमारे हृदय मे ममत्व (लगाव) है, 'यह मेरा है' इसके पीछे जो आसक्ति पूर्ण भावना काम कर रही, वही माया है।