सोअयमात्माध्यक्षरमोंकारोअधिमात्रं पादा मात्राश्च
पादा अकार उकारो मकार इति।।
ॐ क्या है?
ओम् इत्येतत् अक्षरः अ उ और में से मिलकर ओम् शब्द की व्युत्पत्ति हुई जिसका अर्थ है कभी विनिष्ट न होने वाला। ॐ को प्रणव के नाम से भी जाना जाता है। तस्य वाचकः प्रणवः। अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकार रुपी प्रणव का स्फुरण हुआ है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। इस एक शब्द को ब्रम्हांड का सार माना जाता है। 16 श्लोकों में इसकी महिमा वर्णित है।
मुंडकोपनिषद् के अनुसार :--
प्रणवो धनुःशरोह्मात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते
अप्रमत्तेन वेदस्य शखत्तन्मयो भवेत्॥
ब्रह्म प्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणव उपासना मुख्य है।
कठोपनिषद् के अनुसार आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रुप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञान रुप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है।
श्रीमद्भागवत में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है।
ओमित्येतदक्षरमिदंसर्व तस्योपाव्याख्यानंभूत,
भवभ्दविष्यदिति सर्वमोंकार एव
यच्चान्यप्त्रिकालतीतं तदप्योंकार एव॥
ॐ ही सर्वस्य है। यह जो कुछ भी भूत, भविष्य और वर्तमान है उसी की व्याख्या है, इसलिए यह सब ओंकार ही है। इसके अलावा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है और भी ओंकार ही है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है। एवं वह व्यवहार से अतीत है।
वैदिक वांङग्य के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण, तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा का गुणगान मिलता है। बौद्ध तथा जैन सम्प्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा है।
ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरूसार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ के जप से साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति की है। कोशीतकी ऋषि निःसन्तान थे, संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने सूर्य का ध्यान कर ॐ का जाप किया। तदोपरांत् उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
गोपथ ग्रन्थ में भी ॐ की महिमा वर्णित है कि जो 'कुश' के आसन पर पूर्वामुख एक हजार बार ॐ रुपी मंत्र का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में उल्लिखित है कि जो ॐ रुपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परमगति प्राप्त करता है।
तैत्तिरीयोपनिषद के अनुसार :--
ओमिति ब्रह्म। ओमितिदंसर्वम् । ओमित्येतदनु कृर्तिहस्म
वा अन्ये श्रावयेत्याश्रावयन्ति । ओमिति समानि गायन्ति|
ओशोमिति शस्त्राणि शंसन्ति। ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगवाति।ओमिति ब्रह्मा प्रसौति ।
ओमित्याग्निहोत्रमनुजानाति।
ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्रवानीति ब्रह्मैवोपाप्रोति॥
अर्थात् ॐ ही ब्रह्म है। ॐ ही यह प्रत्यक्ष जगत है। ॐ ही इसकी अनुकृति है। हे आचार्य! ॐ के विषय में और भी सुनायें। आचार्य सुनाते हैं। ॐ से प्रारम्भ करके साम गायक समगान करते हैं। ॐ ॐ कहते हुए ही शस्त्र रुप मंत्र पढ़े जाते हैं। ॐ से ही अध्वर्यु प्रतिगर मंत्रों का उच्चारण करता है। ॐ कहकर ही अग्निहोत्र प्रारम्भ होता है। अध्ययन के समय ब्राह्मण ॐ कहकर ही ब्रह्म को प्राप्त करने की बात करता है।ॐ के द्वारा ही वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।
कठोपनिषद में लिखा गया है कि :--
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति
तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥
सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति का साधन कहते हैं जिसकी इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ। ॐ यही पद है।
ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं
सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते |
तमोकारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान
यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति॥
साधक द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा अंतरिक्ष को, और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विद्वजन जानते हैं। तथा उस ओंकार रुप आलम्बन के द्वारा ही विद्वान उस लोक को प्राप्त होता है जो शान्त, अजर, अमर, अभय, एवं सबसे श्रेष्ठ है।
ओ ओंकार आदि मैं जाना
लिखि औ मेटें ताहि ना माना॥
ओ ओंकार लिखे जो कोई
सोई लिखि मेटणा न होई॥
लेखन : मिनी
Incredibly knowledge giving article. One must read it.Thoughtfully written and amazingly directed.
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