Monday, January 11, 2021

मीराबाई का जीवन परिचय


मीराबाई एक महान कवियित्री, भगवान श्रीकृष्ण की दीवानी और उनकी परम भक्त थीं। उनका नाम भक्ति-आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय संतों में सुमार है। मीरा के काव्य में कृष्ण भक्ति का अनुपम वर्णन मिलता है।  भगवान कृष्ण को समर्पित उनके भजन, उत्तर भारत के घर-घर में अत्यंत ही लोकप्रिय है।

आज भी उनके द्वारा रचित भजन बड़ी श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। उनका जन्म, राजस्थान के राजपूत राजघराने में हुआ था। मीराबाई के जीवन से संबंधित कई कथाएँ और किवदंतियां प्रसिद्ध है।अपने पति के आकस्मिक मृत्यु के बाद वे भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त हो गयी। लोकलाज के कारण उन्हें घर से निकाल दिया गया। उनके बाद वे और भी दृढ़ता से कृष्ण भक्ति में तल्लीन हो गयी। मीरा कृष्ण की दीवानी थी, उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति की गहराई अतल है। उन्होंने सामाजिक और पारिवारिक लोक-लाज की प्रवाह किए बगैर कृष्ण को अपना पति माना और उनकी भक्ति में लीन हो गयीं।

मीरा बाई का संक्षिप्त परिचय

जन्म वर्ष सन 503 ईस्वी की आसपास

जन्म स्थान राजस्थान के मेड़ता

पति का नाम भोजराज

रचना नरसी का मायरा, मीरांबाई की पदावली, राग सोरठ के पद, राग गोविंद, गीत गोविंद टीका

निधन सन 1557 ईस्वी

मीराबाई के जन्म से सम्बंधित कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनके जन्म वर्ष, जन्म स्थान को लेकर विद्वानों के बीच मतांतर है। प्रचलित कविदंती, कहानी, साहित्य तथा अन्य स्रोतों के मंथन से उनके जीवन से जुड़ी जो कहानी प्रचलित है। आइये मीराबाई के बारें में विस्तार से जानते हैं।

ज्ञात तथ्यों के आधार पर मीराबाई का जन्म, राजस्थान के मेड़ता में सन 1503 ईस्वी के आसपास बताया जाता है। उनका जन्म राजपरिवार में राव दुदाजी के बंशज में हुआ था। मीरा बाई के पिता रतन सिंह राठौड़ एक छोटे से रियासत के शासक थे। बचपन में ही मीराबाई के माता की मृत्यु हो गयी। मीराबाई अपने पिता की इकलौती संतान थी। कहते हैं की उनका पालन-पोषण उनके दादा के सनिध्य में हुआ। उनके दादा जी भगवान विष्णु के परम भक्त थे। इस कारण साधु-महात्मा का उनके घर पर आना-जाना लगा रहता था। आगे चलकर इस भक्ति भावना का प्रभाव उनके जीवन पर भी पड़ा।

मीराबाई का विवाह

मीराबाई की उम्र जब मात्र तेरह साल की थी तब उनका विवाह कर दिया गया। उनका विवाह सन 1516 ईस्वी  में उदयपुर के राजा महाराणा सांगा के युवराज भोजराज से सम्पन्न हुआ।

सन 1518 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के साथ संघर्ष में राजकुमार भोजराज घायल हो गया। इस कारण दुर्भागयवस से विवाह के कुछ वर्षों के बाद सन 1521 ईस्वी में उनके पति भोजराज की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार मीरा अल्पायु में ही विधवा हो गयी।

इस विपत्ति की घड़ी में वे भगवान श्री कृष्ण की ओर उन्मुख हुई। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार बनाया और कृष्ण भक्ति में लीन हो गयी। धीरे-धीरे इस मिथ्या जगत से उन्हें विरक्त हो गयीं और उन्होंने अपना सारा समय कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया। 

संसार से हो गई विरक्ति

कहते हैं की उस बक्त सती प्रथा प्रचलित थी और पति की मृत्यु होने पर पत्नी को भी पति के साथ आग में जलना पड़ता था। मीरा को भी सती करने की कोशिश  की गयी। लेकिन वह तैयार नही हुईं। धीरे-धीरे उन्हें इस मिथ्या जगत से विरक्त हो गयीं।

उनका अधिकांश समय साधु-संतों की संगति में भजन में व्यतीत करने लगीं। मीराबाई मंदिरों में जाकर कृष्ण का भजन गाती तथा कृष्ण भक्ति में लीन हो जाती। वे परिवार के लोक-लाज को दरकिनार कर कृष्ण की मूर्ति के सामने भक्तिमद में चूर हो नाचने लगती।

तीर्थ यात्रा पर निकलना

मेड़ता के पतन के बाद मीरा ने गृह त्याग कर तीर्थ यात्रा पर निकल गयी। सन्‌ 1539 में वे वृंदावन आ गयी जहॉं उनकी मुलाकात रूप-गोस्वामी से हुई। मीराबाई ने कुछ वर्ष वृंदावन में ही रहकर कृष्ण भक्ति की।

उसके बाद वे सन्‌ 1546 ईस्वी के आस-पास गुजरात में भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका चली गईं। उन्होंने अपना सारा समय कृष्ण भक्ति, साधु संतों के साथ भजन और भक्ति पदों की रचना में व्यतीत करने लगी।

मीराबाई का निधन

कहते हैं की बहुत दिन तक वृन्दावन में समय गुजारने के बाद वे द्वारिका चली गईं। कविदंती है की द्वारका जाकर वे भगवान कृष्ण का भजन करते हुए सन 1560 ईस्वी में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समाहित हो  गईं।

मीराबाई की रचनाएँ

भगवान् श्रीकृष्ण के गुणगान में रचित सैकड़ों भजन को मीराबाई के साथ जोड़ा देखा जाता है। लेकिन विद्वानों का मत इससे अलग है। ज्यादातर विद्वान का मत है की मीराबाई ने इनमें से कुछ भजन का ही रचना की थी।बाकी की रचनायें उनके प्रसंशकों द्वारा रचित जान पड़ती है। उनकी काव्य रचना में उनकी आत्मा का रुदन और हास्य दोनो समाहित है। मीरा बाई ने ब्रजभाषा और राजस्थानी में स्फुट पद की ही रचना की।

कुछ विद्वान के अनुसार मीरा बाई के चार प्रमुख रचना मानी जाती है।

गीतगोविंद टीका,

राग गोविंद,

राग सोरठ

नरसी का मायरा।

मीरा के पद के कुछ अंश 

हरि आप हरो जन री भीर। द्रोपदी री लाज राखी, आप बढ़ायो चीर। भगत कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।

बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुञ्जर पीर। दासी मीरा लाल गिरधर, हरो म्हारी भीर॥

चाकरी में दरसण पास्यू, सुमरण पास्यू खरची। भाव भगती जागीरी पास्यू, तीनूं बाता सरसी।

मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल वैजंती माला। बिंदरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला।

मीरा बाई के पद और दोहे के अंश

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु कृपा करि अपनायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

जी पाई जग में सभी खोवायो। पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो।  पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो, पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

लेखन : चांदनी 

Friday, January 8, 2021

सत्य क्या है?


सत्यं ब्रह्म सनातनम्|
सत्य का शाब्दिक अर्थ होता है, सभी का कल्याण।
पृथ्वी सत्य की शक्ति द्वारा समर्थित है; ये सत्य की शक्ति ही है जो सूरज को चमक और हवा को वेग देती है; दरअसल सभी चीज सत्य पर निर्भर करती हैं।
अपने आस पास मौजूद वस्तु स्थिति, क्रिया प्रतिक्रिया और जन्म मृत्यु को हम मूल रूप में सत्य की संज्ञा देते हैं। हमने क्या प्राप्त किया, क्या स्वीकार किया और किस प्रकार का कार्य किया? मानव मस्तिष्क की गतिविधियां और कार्य ही मूलतः सत्य की श्रेणी में आते हैं।
न्याय दर्शन में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन वाक्य है। जब हम कुछ सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं। जब हम स्वीकार करते हैं तो इस दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। विश्वास सत्य हो या असत्य क्रिया का आधार है।
आध्यात्मवाद कहता कि सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए। अनुभव में "आंतरिक अवरोध" सत्य की कसौटी है। 'पुस्तक मेज पड़ी है' यह मुझे कैसे पता चला? आंख ऐसा दर्शाती है। यह एक अनुभव है। परन्तु आंख कभी कभी धोखा भी देती है। मैंने हाथ से पुस्तक और मेज को छुआ। यह दूसरा अनुभव पहले अनुभव की पुष्टि करता है। हाथ से खटखटाने पर जो आवाज सुनायी देती है, वह पुस्तक और मेज से निकलती प्रतीत होती है। यहाँ तीसरा अनुभव पहले दोनों की पुष्टि करता है।
आकर्षणनियम के अनुसार, प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों से आकृष्ट होता है। इसी तरह सत्य ज्ञान के सभी भाग एक दूसरे पर आश्रित हैं। जो निर्णय इस तरह शेष अनुभव से युक्त हो सकता है, वह, सत्य है; जिसमें योग्यता नहीं वह असत्य है। इधर अविरोध वाद के अनुसार सत्यों में परिणाम का भेद होता है।
"मैं ख्याल करता हूँ कि मुझसे अलग, बाहर, मेज और पुस्तक विद्यमान हैं उनमें एक विशेष सम्बन्ध है। यदि स्थिति वास्तव में ऐसी ही है तो मेरा वाक्य सत्य है; ऐसा न होने की स्थिति में असत्य है।" यह अनुरुपता का सत्य सिद्धांत है।
अनुरुपता का सिद्धांत वस्तुवाद से गठित है और सर्वमान्य सा है। भारत के दर्शन में प्रत्यक्ष को प्रथम प्रमाण की संज्ञा दी गई है। प्रत्यक्ष 'इंद्रिय और उसके विषय के सामीप्य का फल है।' यह सामीप्य दो प्रकार से हो सकता है: या तो पदार्थ इंद्रिय के पास आये, या मन इंद्रिय द्वार से गुजर कर पदार्थ तक पहुँचे। दूसरी घटना घटती है और मन विषय का रुप ग्रहण करता है। यह अनुरुपता सिद्धांत का स्पष्ट समर्थन है।
स्वामी दयानंद सरस्वती अपनी रचना 'सत्यार्थ प्रकाश' में लिखते हैं कि, इस ग्रंथ को लिखने का प्रयोजन ही सत्य के अर्थ का प्रकाशन है।
जिस प्रकार एक पृथ्वी है एक सूर्य है एक ही मानव जाति है ठीक उसी प्रकार मानवीय धर्म भी एक ही है जिसका आधार सत्य है बाकी सब भ्रम है। 'सत्यार्थ प्रकाश' में स्वामी जी ने सत्य को पांच प्रकार से दर्शाया है।
जो ईश्वर के गुण धर्म और वेदों के अनुकूल हो, वह सत्य है और उसके विरुद्ध असत्य है। वेद ही सत्य ज्ञान की पुस्तक है। इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर है और सृष्टि के उपयोग की विधि निषेध वेद ज्ञान है। वेद सर्वज्ञ ईश्वर के प्रदत्त होने से निर्भांत एवं संशय रहित है, इसी वेद ज्ञान के अनुसार आर्यों ने सिद्धांत निर्धारित किया है।
जो सृष्टि क्रम के अनुकूल है, वह सत्य है और जो विपरीत है सब असत्य है। सृष्टि की रचना और उसका संचालन ईश्वरीय व्यवस्था और प्राकृतिक नियमों के अधीन है।
जो यथार्थ वक्ता, धार्मिक, सब के सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है। जो छल कपट और स्वार्थ से रहित है वह सत्योपदेशक है।
मनुष्य की आत्मा सत्य असत्य को जानती है परन्तु हठ, दुराग्रह और अविद्या आदि दोषों के कारण सत्य को छोड़ असत्य की तरफ बढती।
जिस आचरण और व्यवहार को आप अपने लिए नहीं चाहते उसे दूसरों के साथ कभी भी नहीं करना चाहिए। धर्म और सत्य का सार ही यही है। सत्य, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्म, अर्थापति , सम्भव और अभाव से प्रतिपादित होना चाहिए।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को सत्य का अर्थ बतलाते हुए कहते हैं कि, 'इस संसार में एक ही सत्य है और है इस धरती पर जन्म लेने वाले की अनिवार्यत: मृत्यु होना। अर्थात् जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। इसमें पशु पक्षी, कीट पतंग, अनुरक्त और विरक्त किसी प्रकार का कोई भेद नहीं है।'
जो प्राणियों के लिए अत्यंत हितकारी हो वही सत्य है। सत्ता तथा वास्तविकता को ही सत्य कहते हैं।
सत्य का अर्थ है कल्याणकारी अर्थात् जिसमें सबका कल्याण निहित हो। सत्य भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों में एक सा रहता है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार, विश्व में सत्य एक है और मानव उसे विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं।    
स्वामी जी कहते हैं, " हमें शक्ति चाहिए, इसलिए अपने आप पर विश्वास करो। अपने स्नायुओं को शक्तिशाली बनाओ। हमें लोहे की पेशियाँ और फौलाद के स्नायु चाहिए। हम बहुत रो चुके हैं, अब और रोना नहीं, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मानव बनों। हमें मानव गठन करने वाला धर्म चाहिए, सिद्धांत चाहिए, चारो ओर हमें मानव गठन करने वाली शिक्षा चाहिए। सत्य की परीक्षा यह है; कि कोई भी वस्तु जो तुम्हे शरीर से, बुद्धि से या आध्यात्मिकता से निर्बल करती है, उसे विष समझ कर त्याग दो, इसमें कोई जीवन नहीं है, यह सत्य नहीं हो सकती। सत्य माने पवित्रता, सत्य माने समग्र ज्ञान, सत्य द्वारा बल प्राप्ति होनी चाहिए।" सत्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए स्वामी जी कहते हैं, "सत्य तो बलप्रद होता है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अंधकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दे।"
               सत्य की परिभाषा क्या है?
               सत्य की इतनी ही परिभाषा
               है जो सदा था, जो सदा है
               और जो सदा रहेगा।
लेखन : मिनी

Saturday, January 2, 2021

परमात्मा कौन है ? माया कौन है ? परमात्मा और माया का क्या सबंध है ?

परमात्मा कौन है ? माया कौन है ? परमात्मा और माया का क्या सबंध है ?

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परमात्मा जिन्हे 'विधाता' भी कहा जाता है। गूढ़रूप मे ये ही सृष्ट्रि के निर्माता है। आनंद परमात्मा का स्वरुप है। परमात्मा पूरे आकाश मे हमेशा से सर्वज्ञ मौजूद है। अतः जल से भरा हुआ ये संसार श्यामवर्ण ले लिया है। विधाता सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति (सत्ता) है। कल्प के प्रारंभ मे विधाता ही ब्रह्मा जी को सृष्टि बनाने का निर्देश देते है, भगवान विष्णु और भगवान शिव का कार्य भी निर्धारित करते है। विधाता ने ही स्त्री की रचना की, जिसमे कुछ वक्त भी लगा। परमात्मा सगुण और साकार है। सगुण का अर्थ है सत्त्व, रज व तम इन तीनों गुणों से युक्त होना। सत्व, रज, तम तीनों गुणों से युक्त परमात्मा का वह रूप जिसमें अविनाशी जीवात्मा शरीर से बंधी रहती है। सत्त्वगुण बढने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेक शक्ति उत्पन्न होती हैं, रजोगुण के बढने पर लोभ, प्रवृति, स्वार्थ-बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा ये सब उत्पन्न होते हैं। तथा तमोगुण के बढने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियां- ये सब ही उत्पन्न होते हैं। परमात्मा की लीला नहीं होती है।

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।
गीता 13.16
परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर और भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वे ही हैं। परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण जानने का विषय नहीं हैं। सृष्टि के प्रारंभ मे अन्तर्बाह्य स्थित मे रहते है, वे चर है और अचर भी। सूक्ष्म होने से इन्हे पहचाना नहीं जा सकता। वे सुन्दर और अत्यन्त नजदीक भी है।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च
गीता 13.17
वह परमात्मा प्रत्येक शरीर में आकाश के समान अविभक्त है। वह परमात्मा सृष्टि के भूतकाल मे सबको उत्पन्न करनेवाला है। उत्पत्ति के समय प्रभविष्णु और प्रलयकाल में ग्रसिष्णु अर्थात सबका संहार करने वाला
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।
                                                  गीता 7.25
परमात्मा कहते हैं यह मोहित जगत्, मुझ अजन्मा अविनाशी को नहीं जान सकता है। क्योंकि उनके लिए मैं सत्व, रज और तम तीनो गुणों युक्त होकर योगमाया से ढका हुआ रहता हूँ। मै अपनी योगमाया के आवरण मे होने के कारण सबके लिये प्रकट नहीं हूँ। जब आप माया को बाह्य वस्तु के रूप में समझने का प्रयत्न करते हैं तब उसे समझने में अत्यन्त कठिनाई होती है। परन्तु जब आप अध्यात्म दृष्टि से विचार करते हैं अर्थात् अपने ही अन्तकरण में माया किस प्रकार कार्य करती है ऐसा विचार करते हैं तो माया का सिद्धांत स्पष्ट हो जाता है। ऋषियों ने इस अविद्या का जो कि जीव के सब दुखों का कारण है सूक्ष्म अध्ययन किया और यह उद्घाटित किया कि यह तीन गुणों से युक्त है जो मनुष्य को प्रभावित करती हैं। इस माया को समझने के लिए किसी गुरु की नहीं अपितु स्वयं की साधना की जरुरत है। इसे सिर्फ साधना द्वारा ही जाना जा सकता है। जब साधक का क्षुब्ध मन शांत हो जाता है तब आवरण के अभाव में वह मेरा अजन्मा अविनाशी स्वरूप को पहचान लेता है। योगमाया से मोहित यह जगत् मेरे अविकारी (जिसने स्वरुप मे परिवर्तन न होता हो ) स्वरूप को नहीं जानता।
हैनमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः
गीता 11.40 हे सर्व। आपको आगे से भी नमस्कार हो। पीछे से भी नमस्कार हो। सब ओर से ही नमस्कार हो। हे अनन्तवीर्यवान। परम विक्रमवाले आपने सबको समावृत कर रखा है; अतः सब कुछ आप ही हैं। अब हम इस श्लोक का विश्लेषण करते है। 'हे सर्व' का आशय 'परमात्मा' से है। 'आगे से नमस्कार' यहाँ दिशा की बात हो रही है। आगे की दिशा सनातन धर्म मे पूर्व की दिशा मानी जाती है। जबकि आज का विज्ञानं उत्तर दिशा को आगे की दिशा मानता है। अनन्तवीर्यामितविक्रम इस वाक्य मे चार शब्द है। अनन्त +वीर्या+मित+विक्रम, इसे हम अनन्तवीर्या+मितविक्रम पढ़े तो सही होगा। मितविक्रम को अमित विक्रम के रूप मे व्यख्यान किया गया है। इस श्लोक से पता चलता है की परमात्मा न केवल सर्वव्यापक है, अपितु सम्पूर्ण सामर्थ्य एवं विक्रम का स्रोत भी है।
माया कौन है ?
माया द्वारा ही यह सृष्टि निर्मित है। माया विधाता की सहकारिणी शक्ति है। यह न सत है न असत, वह एक अनिर्वचनीय पदार्थ है। विधाता की इच्छा से इसकी उत्पत्ति होती है।
परमात्मा और माया का क्या सबंध है ?
इसे भगवान श्री कृष्ण ने इसे 'योगमाया' कह कर सम्बोधित किया है। योग का मतलब होता है सम्बन्ध। यानि परमात्मा और माया की युक्ति 'योगमाया' है। विधाता स्वप्रकाश है, किन्तु अपनी इच्छा से अपने आप को आवरण युक्त करता है। इस आवरण को माया कहते है। विधाता जिस समय वे आवरण युक्त होते है, उस समय वे आवरण मुक्त भी रह सकते है। इसका आशय का विशेषण समझे - आवरण (माया) से 'युक्त' आत्मा है अर्थात जीव और आवरण (माया) से मुक्त है ब्रह्म। सांसारिक वस्तुओ के प्रति हमारे हृदय मे ममत्व (लगाव) है, 'यह मेरा है' इसके पीछे जो आसक्ति पूर्ण भावना काम कर रही, वही माया है।  

Monday, December 28, 2020

ॐ क्या है ?

सोअयमात्माध्यक्षरमोंकारोअधिमात्रं पादा मात्राश्च

पादा अकार उकारो मकार इति।। 

ॐ क्या है?

ओम् इत्येतत् अक्षरः अ उ और में से मिलकर ओम् शब्द की व्युत्पत्ति हुई जिसका अर्थ है कभी विनिष्ट न होने वाला। ॐ को प्रणव के नाम से भी जाना जाता है। तस्य वाचकः प्रणवः। अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है।  सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकार रुपी प्रणव का स्फुरण हुआ है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। इस एक शब्द को ब्रम्हांड का सार माना जाता है। 16 श्लोकों में इसकी महिमा वर्णित है। 

मुंडकोपनिषद् के अनुसार :--

प्रणवो धनुःशरोह्मात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते

अप्रमत्तेन वेदस्य शखत्तन्मयो भवेत्॥

ब्रह्म प्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणव उपासना मुख्य है। 

कठोपनिषद् के अनुसार आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रुप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञान रुप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। 

श्रीमद्भागवत में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। 

ओमित्येतदक्षरमिदंसर्व तस्योपाव्याख्यानंभूत,

भवभ्दविष्यदिति सर्वमोंकार एव

यच्चान्यप्त्रिकालतीतं तदप्योंकार एव॥

ॐ ही सर्वस्य है। यह जो कुछ भी भूत, भविष्य और वर्तमान है उसी की व्याख्या है, इसलिए यह सब ओंकार ही है। इसके अलावा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है और भी ओंकार ही है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म  रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है। एवं वह व्यवहार से अतीत है। 

वैदिक वांङग्य के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण, तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा का गुणगान मिलता है। बौद्ध तथा जैन सम्प्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा है। 

ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरूसार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ के जप से साधकों ने अपने  उद्देश्य की प्राप्ति की है। कोशीतकी  ऋषि निःसन्तान थे, संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने सूर्य का ध्यान कर ॐ का जाप किया। तदोपरांत् उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। 

गोपथ ग्रन्थ में भी ॐ की महिमा वर्णित है कि जो 'कुश' के आसन पर पूर्वामुख एक हजार बार ॐ रुपी मंत्र का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं। 

श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में उल्लिखित है कि जो ॐ रुपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परमगति प्राप्त करता है। 

तैत्तिरीयोपनिषद के अनुसार :--

ओमिति ब्रह्म। ओमितिदंसर्वम् । ओमित्येतदनु कृर्तिहस्म

वा अन्ये श्रावयेत्याश्रावयन्ति । ओमिति समानि गायन्ति|

ओशोमिति शस्त्राणि शंसन्ति। ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगवाति।ओमिति ब्रह्मा प्रसौति । 

ओमित्याग्निहोत्रमनुजानाति। 

ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्रवानीति ब्रह्मैवोपाप्रोति॥

अर्थात् ॐ ही ब्रह्म है। ॐ ही यह प्रत्यक्ष जगत है। ॐ ही इसकी अनुकृति है। हे आचार्य! ॐ के विषय में और भी सुनायें। आचार्य सुनाते हैं। ॐ से प्रारम्भ करके साम गायक समगान करते हैं। ॐ ॐ कहते हुए ही शस्त्र रुप मंत्र पढ़े जाते हैं। ॐ से ही अध्वर्यु प्रतिगर मंत्रों का उच्चारण करता है। ॐ कहकर ही अग्निहोत्र प्रारम्भ होता है। अध्ययन के समय ब्राह्मण ॐ कहकर ही ब्रह्म को प्राप्त करने की बात करता है।ॐ के द्वारा ही वह ब्रह्म को प्राप्त करता है। 

कठोपनिषद में लिखा गया है कि :--

सर्वे वेदा  यत्पदमामनन्ति

तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। 

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥

सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति का साधन कहते हैं जिसकी इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ। ॐ यही पद है। 

       ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं

       सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते |

       तमोकारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान

       यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति॥

साधक द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा अंतरिक्ष को, और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विद्वजन जानते हैं। तथा उस ओंकार रुप आलम्बन के द्वारा ही विद्वान उस लोक को प्राप्त होता है जो शान्त, अजर, अमर, अभय, एवं सबसे श्रेष्ठ है। 

        ओ ओंकार आदि मैं जाना

        लिखि औ मेटें ताहि ना माना॥

        ओ ओंकार लिखे जो कोई

        सोई लिखि मेटणा न होई॥

लेखन : मिनी  

             

Thursday, December 24, 2020

मीरा बाई के भजन

 राजस्थानी भजन - मीराबाई विष का प्याला पी गई  


सनातन धर्म क्या है ?


“यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग में पैदा हुए हैं तथा प्रगति की है हे मनुष्य आप अपने उत्पन्न होने की अवधारणा अपनी माता को विनष्ट  न करें ”   -- ॠग्वेद 3-18-1 

विश्व के सभी धमों में सनातन धर्म सबसे प्राचीन धर्म है। परंपरागत वैदिक धर्म जिसमें परमात्मा को साकार और निरंकार दोनों रुपों में पूजा जाता है, जो अपने अन्दर कई अलग - अलग उपासना पद्धतियां, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन को समेटे हुए है। 
सनातन धर्म का अर्थ: 'शाश्वत'  या 'हमेशा' बना रहने वाला है। इसका न ही कोई अंत है न ही कोई आरम्भ है। वही सनातन धर्म है। 
“जो उपकार करे, उसका प्रत्युपकार करना चहिये, यही सनातन धर्म है” -- महर्षि वाल्मीकि 

सनातन धर्म सृष्टि के प्रारंभ काल से ही चला आ रहा है। माना जाता है कि इसके 1960853112 वर्ष पूर्ण हो गया है। यह वर्तमान  प्रचलित ब्रम्हांड गणित के आधार पर है। सनातन धर्म में 'ओउम्’ को ही परमेश्वर माना जाता है, जो  सच्चिदानन्द स्वरूप, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अजर अमर है। 
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, 
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते। 
ॐ शांति: शांति: शांतिः       --  ईशोपनिषद
वह जो दिखाई नहीं देता है, वह अनंत और पूर्ण है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। उस अनंत से विश्व बहिर्गत हुआ। यह अनंत विश्व उस अनंत से बहिर्गत होने पर भी अनंत ही रह गया।

सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम, नियम आदि है। सत्य शब्द की व्युत्पत्ति दो धातुओं से हुई है सत् और तत्।  सत्य का अर्थ है यह और तत् का अर्थ है वह। दोनों ही सत्य है। सम्पूर्ण जगत ब्रम्हमय है। संसार की उत्पति ब्रम्ह से ही हुई है। यही सनातन सत्य है, यही सनातन धर्म है। जो सदैव स्थिर रहता है। सनातन धर्म सम्प्रदाय और देवी देवता: प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म में गाणपत्य ,शैव, वैष्णव, शाक्त और सौर नामक सम्प्रदाय थे। गाणपत्य भगवान गणेश की, वैष्णव भगवान विष्णु की, शैव कोटी शिव की, शाक्त शक्ति की और सौर सूर्य की आराधना करते थे। पर मान्यता थी की सब एक ही सत्य की व्याख्या है। न केवल ऋग्वेद अपितु रामायण और महाभारत में भी उल्लिखित है की प्रत्येक सम्प्रदाय के लोग अपने सम्प्रदाय के देवता को दूसरे सम्प्रदायों के देवता से श्रेष्ठ समझते थे और इस कारण आपस में वैमनस्य बना रहता था। इसलिए धर्म गुरुओ ने लोगो को यह शिक्षा देना आरम्भ किया की सभी देवी देवता समान हैं।

स्रोत: सनातन धर्म साहित्य यानी की वेद, पुराण, उपनिषद, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, मनुस्मृति, महाभारत,रामायण आदि है। ऋग्वेद सनातन धर्म का सबसे प्राचीन और प्रमुख स्रोत है। 

ऋग्वेद: ऋग्वेद प्राचीनतम ग्रन्थों में से एक है। यह सनातन धर्म का मुख्य स्रोत है| इसमें 1028 सूक्त हैं, जिसमें देवताओं की स्तुति की र्ई है। इस ग्रंथ में देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मंत्र है। ऋक् संहिता में 10 मंडल, बालखिल्य सहित 1028 सूक्त हैं। सूक्त वेद मंत्रों के समूह को कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकाम ही प्रतिपादन रहता है।  

सनातन धर्म सुधार सनातन धर्म में आधुनिक और समसामयिक चुनोतियो  का सामना करने के लिये इसमें बदलाव होते रहे। राजाराम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी वववेकानंद आदि धर्म सुधारकों ने सनातन धर्म में व्याप्त कुरीतियों जैसे, सती प्रथा, बाल विवाह, अस्पर्शता जैसे विचारो का खंडन किया और सुधारने की कोशिश की।  सनातन धर्म को हिन्दू धर्म का ही प्राचीन रुप माना जाता है, और सिख, जैन, बौद्ध धर्मावलंबी भी सनातन धर्म का ही हिस्सा है। 
“ हम भारतीय सभी धमों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरना सभी धमों को सच्चा मानकर स्वीकार भी करते हैं”    -- स्वामी विवेकानन्द

लेखन : मिनी 

Monday, December 21, 2020

आदि गुरु शंकराचार्य का जीवन परिचय

 आदि गुरु शंकराचार्य का जीवन परिचय 

“वास्तविक आनन्द उन्हीं को प्राप्त होता है जो आनन्द की तलाश नहीं कर रहे होते “

अद्वैत  वेदांत के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म दक्षिण भारत के केरल प्रान्त में 788 ईस्वी में काली ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था | लेकिन अपने जीवन का अधिकांश समय उन्होंने उत्तर भारत में व्यतीत किया| शंकराचार्य के बचपन का शंकर था| आगे चलकर यह  'शंकर’ शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए| कहा जाता है कि शंकराचार्य बचपन से ही सन्यासी बनना चाहते थे| लेकिन उनकी माता नहीं चाहती थी कि उनके पुत्र गृह त्याग करे, पर शंकराचार्य की भावनाओं को समझते हुए उनकी माता ने एक शर्त पर उन्हें सन्यास की आज्ञा दी कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनका अंतिम संस्कार स्वयं उनके पुत्र शंकर ही करेंगे| शंकराचार्य ने अपनी माता के अनुरोध को स्वीकार कर लिया और अपना सबकुछ त्याग कर ज्ञान का खोज में चल पड़े|

 आत्मा की गति मोक्ष में है”

शंकराचार्य ने अपनी अपनी अन्य निष्ठा के फलस्वरूप अपने गुरु से शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं प्राप्त किया अपितु ब्रह्मत्व को भी अनुभव किया|जीवन के व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक पक्ष की सत्यता का ज्ञान उन्हें काशी में प्राप्त हुआ | काशी में गंगा तट पर शंकराचार्य का सामना एक चाण्डाल से हुआ| उसके स्पर्श से शंकराचार्य कुपित हो उठे|  चाण्डाल ने हंसते हुए शंकराचार्य से पूछा, “आत्मा और परमात्मा तो एक हैं| जिस देह से तुम्हारा स्पर्श हुआ, अपवित्र कौन है? तुम या तुम्हारे देह का अभिमान? परमात्मा तो सभी की आत्मा में है| तुम्हारे सन्यासी होने का क्या अर्थ है जब तुम ऐसे विचार रखते हो?”

कहा जाता है कि चाण्डाल के रूप में स्वयं भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन देकर ब्रह्म और आत्मा का सच्चा ज्ञान दिया| इस ज्ञान प्राप्ति के पश्चात वे दुर्ग रास्तों से होते हुए बद्रीकाश्रम पहुंचे यहाँ चार वर्ष तक रहने के पश्चात केदारनाथ पहुँचे| जहाँ उनका सामना मण्डन मिश्र नामक एक कर्मकांडी ब्राह्मण से हुआ जिसको इन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित किया और तत्पश्चात उनकी पत्नी उभय भारती को भी हराया|

शंकराचार्य की शिक्षायें तथा कार्य: आदि शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत कहा जाता है| शंकराचार्य का 'अद्वैत वेदांतवाद' उन्नीसवीं शताब्दी में काफी लोकप्रिय हुआ| उन्होंने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया और संसार को भ्रम तथा माया बताया| शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयत्न किया| और साधु समाज की अनादि काल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यो की परम्परा की शुरुआत हुई|

चार मठ जिसका गठन शंकराचार्य ने किया :-

1)      बद्रीनाथ

2)      शृंगेरी पीठ

3)      द्वारिकापीठ

4)      शारदा पीठ|

इन्होंने अनेक विधर्मियों को अपने धर्म में दीक्षित किया| इन्होंने ब्रह्म सूत्रों की बड़ी ही विशद तथा रोचक व्याख्या की है| स्मार्त सम्प्रदाय में शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है| इन्होंने ईश, केन, कठिन, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छन्दोग्योगपनिषद् पर भाष्य लिखा| वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और पूरे भारत में प्रचार तथा वार्ता की|

शंकराचार्य से सन्यासियो के ‘दसनामी सम्प्रदाय’ का प्रचलन हुआ| इनके चार शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हुए| इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुईं| इस सम्प्रदाय के साधु प्रायः भगवा वस्त्र पहनते एक भुज वाली लाठी रखते और गले में चौवन रूदाक्ष की माला पहनते थे| कठिन योग साधना और धर्म प्रचार में उनका जीवन बितता था|

मात्र 32 वर्ष की अवस्था में शंकराचार्य निर्वाण को प्राप्त हुए| इस छोटी सी उम्र में भारत भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया|

कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञान विज्ञान को उद्वासित और विशुद्ध कर वैदिक वांग्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुगन्धद्रव्यं को सार्वभौम सम्राट स्थापित करने वाले चतुराग्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरूप भगवात्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है|

 लेखन : मिनी  

प्रकाशक : प्रिंस म्यूजिक कंपनी

Saturday, December 19, 2020

12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन

12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन  

1. सोमनाथ ज्योतिर्लिंग :-
गुजरात राज्य के सौराष्ट्र नगर मे अरब सागर के तट पर स्थित है। इसे प्रथम ज्योतिर्लिंग माना जाता है। इसका वर्णन स्कन्द पुराण के प्रभास खण्ड मे किया गया है। भगवान शिव माता पार्वती को बताते है की, जिस समय ना ब्रह्मा थे ना भूमि थी, ना सूर्य थे ना ही ये सम्पूर्ण जगत था। उस समय प्रलय काल मे ब्रह्मा जी ने इस दिव्य लिंग की रक्षा इस भावना से की मुझे भविष्य मे यहाँ विराजवान होना है। पूर्वकल्पो मे यह शिवलिंग सप्त पताललोक को भेदन करने वाला तथा कोटि-कोटि सूर्यो के सामान तेजस्वी था।
प्रभासक्षेत्र का महत्त्व :-
वैज्ञानिक महत्त्व - इस मंदिर मे एक बाणस्तंभ है, जिसके तीर को दक्षिण दिशा की ओर इंगित किया गया है। मंदिर ओर दक्षिणी ध्रुव की बीच मे कोई धरा (भूमि) नहीं है। मंदिर के केंद्रीय हॉल को अष्टकोणीय शिव-यंत्र का आकार दिया गया है ताकि मंदिर को समुद्र की दीवार से सुरक्षा प्रदान की जा सके।
पौराणिक महत्त्व - प्रभासक्षेत्र सभी तीर्थो मे श्रेष्ठ है। समस्त क्षेत्रो मे प्रभासक्षेत्र भगवान शिव को अत्यधिक प्रिय है, प्रभास मे उत्तम सिद्धि ओर परम गति प्राप्त होती है। इसके पूर्व भाग मे अंधकार को नास करने वाले सूर्य देवता है, पश्चिम मे माधव जी है, दक्षिण मे समुंद्र है तथा उत्तर मे भवानी है। ब्रह्माण्ड मे जितने भी तीर्थ है, वे सभी वैशाख की चतुर्दशी को सोमनाथ के पास आते है।प्रभासक्षेत्र मे ब्रह्मतत्व, विष्णुतत्व ओर रूद्रतत्त्व एकत्र उपलब्ध हो जाते है, जो की एक दुर्लभ संयोग है। इस क्षेत्र मे रहने वालो को मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा जो भी प्राणी इस क्षेत्र मे मरता है उसे मोक्ष मिल जाता है तथा वह प्राणी संसार मे आने ओर जाने की बंधन से मुक्त हो जाता है। ,
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग को हर एक सृष्टि मे अलग-अलग नामो से जाना जाता है। स्कंद पुराण मे भगवान शिव पार्वती जी बताते है की - पूर्वकाल मे मैं ही स्पर्शलिंग स्वरूप मौजूद था। उस समय कोई भी मनुष्य यहाँ मुझे नहीं जानता था। जलप्रलय के बाद नूतन ब्रह्मा की सृष्टि हुई। अबतक छह ब्रह्मा बदल गये है और अब ये सातवे ब्रह्मा का कल्प चल रहा है जिसका नाम "शतानंद" है। बीते हुए कल्पो मे जो पहले ब्रह्मा थे उनका नाम बिरिच्जी था, उनके समय मे इस शिवलिंग का नाम मृत्युंजय था। दूसरे कल्प मे जो ब्रह्मा हुए उनका नाम पद्मभू था, उस वक्त सोमनाथ का नाम कालाग्निरूद्र था। तीसरे कल्प मे जो ब्रह्मा हुए उनका नाम स्वयंभू था, उस वक्त सोमनाथ का नाम अमृतेश था। चौथे कल्प मे जो ब्रह्मा हुए उनका नाम परमेष्टि था, उस वक्त सोमनाथ का नाम अनामय था। पांचवे कल्प मे जो ब्रह्मा हुए उनका नाम सुरज्येष्ट था, उस वक्त सोमनाथ का नाम कर्तिवास था। छठे कल्प मे जो ब्रह्मा हुए उनका नाम हेमगर्भ था, उस वक्त सोमनाथ का नाम भैरवनाथ था। भगवान शिव कहते है आठवे कल्प जो ब्रह्मा सृष्टि का सृजन करेगे वे चतुमुर्ख नाम से विख्यात होंगे तथा तब सोमनाथ का नाम प्राणनाथ होगा। इस प्रकार अबतक सोमनाथ के आठ नाम हो चुके है।
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का चंद्रदेव से सबंध - दक्ष प्रजापति की सत्ताइस पुत्रियाँ थी, उन सभी कन्याओ का विवाह दक्ष ने चंद्रदेव से कर दिया। किन्तु चंद्रदेव का लगाव व प्रेम केवल रोहिणी क़े प्रति था। जिससे अन्य कन्याये बहुत अप्रसन्न रहती थी, उन्होंने अपनी यह व्यथा अपने पिता से बताई, समस्या का समाधान करने हेतु दक्ष ने चंद्रदेव को समझाया किन्तु चंद्रदेव रोहिणी क़े प्यार मे वशीभूत थे अतः उन्होंने बात को अनसुनी कर दी। तत्पश्चात दक्ष ने क्रोधित होकर चंद्रदेव को 'क्षयग्रस्त' होने का श्राप दे दिया। इस श्राप से चंद्रदेव क्षयग्रस्त हो गये। बाद मे चंद्रदेव ने भगवान शिव की घोर तपस्या की, इस श्राप से मुक्ति पाने क़े लिये दस करोड़ बार मृत्युंजय मंत्र का जाप किया। चंद्रदेव से प्रसन्न होकर शिव प्रकट हुए और चन्द्रमा को श्राप मुक्त होने का वादन दिया। चन्द्रमा ने जिस शिवलिंग क़े पूजा की उसमे स्वंभू शिव समां गये। इस प्रकार चंद्रदेव ने जिस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की वह स्थान सोमश्वर यानि सोमनाथ कहलाया।
सोमनाथ मंदिर का निर्माण चंद्रदेव ने सोने से करवाया था, सूर्यदेव ने चाँदी से और कृष्ण ने चन्दन से मंदिर का निर्माण करवाया। पहली बार पत्थरो से सोमनाथ मंदिर का निर्माण राजा भीमदेव ने करवाया था। पहली बार पत्थरो से सोमनाथ मंदिर का निर्माण राजा भीमदेव ने करवाया था। सोमनाथ मंदिर पर कई बार हमला किया गया इसे छ: बार तोड़ा गया। 
2. मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग :- 

आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा ज़िले में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत पर मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग स्थित है भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग मे इसे दूसरा स्थान प्राप्त है। इस स्थान को दक्षिण का कैलाश भी कहा जाता है। स्कन्द पुराण मे श्रीशैल काण्ड मे इस ज्योतिर्लिंग का महत्व बताया गया है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से मनुष्य के सारे कष्ट दूर हो जाते है, किसी भी प्रकार की असाध्य बीमारी ठीक हो जाती है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने वालो को मोक्ष की प्राप्ति होती है और वह प्राणी आने-जाने के बंधन से मुक्त हो जाता है।

मल्लिकार्जुन र्ज्योतिर्लिंग के बारे मे पौराणिक मान्यता :-- शिवपुराण के अनुसार, भगवान शिव और पार्वती के दोनों पुत्र कार्तिकेय और गणेश जी का विवाह को लेकर एकबार विवाद हो गया। गणेशजी अपना विवाह पहले करवाना चाहते थे जब कि कार्तिकेय गणेश से बड़े थे इसलिए कार्तिकेय पहले अपना विवाह करवाना चाहते थे। भगवान शिव ने इस समस्या को सुलझाने के लिया एक शर्त रखी, उन्होंने कहा जो भी तुम दोनों मे से पहले पृथ्वी कि परिक्रमा करके पहले आयेगा, उसका विवाह पहले कर दिया जाएगा। कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर सवार होकर पृथ्वी की परिक्रमा करने निकल पड़े। परन्तु गणेश जी वही डटे रहे, गणेश जी ने वही माता पिता की सात बार परिक्रमा कर ली, जिसका फल पृथ्वी की परिक्रमा करने के समतुल्य ही था। भगवान शिव और माता पार्वती गणेश जी चतुर बुध्दि देख कर काफी खुश हुऐ, और उन्होंने गणेश जी का विवाह कार्तिकेय के विवाह से पहले ही कर दिया। जब तक कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा कर के आते उसके पहले ही गणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों रिद्धि (कुछ ग्रंथो मे बुद्धि नाम दिया हुआ है) और सिद्धि के साथ हो चूका था। जब कार्तिकेय को इस बात का पता चला तो व नाराज होकर क्रौंच पर्वत पर जाकर निवास करने लगे। भगवान शिव और पार्वती जी ने कार्तिकेय को मानने के लिये नारद जी जो भेजा लेकिन कार्तिकेय नहीं माने। कार्तिकेय को मानाने के लिए माता पार्वती क्रौंच पर्वत पहुंच गयी, उधर भगवान शिव भी एक र्ज्योतिर्लिंग के रूप मे प्रकट हो गये। तभी से इस र्ज्योतिर्लिंग की पूजा होने लगी। मल्लिका का माता पार्वती नाम है तथा अर्जुन से आशय भगवान शिव से है। 
मल्लिकार्जुन र्ज्योतिर्लिंग से जुडी लोक मान्यता :-- कौंच पर्वत के समीप में ही चन्द्रगुप्त नामक राजा की राजधानी थी। एकबार उनकी कन्या किसी संकट में पड़ गयी, विपत्ति से बचने के लिए वह अपने पिता के राजमहल से भागकर कौंच पर्वत पहुंच गयी। वह वही ग्वालों के साथ कन्दमूल खा कर और दूध पी कर रहने लगी। उस कन्या के पास एक श्यामा नाम की गाय थी। एक दिन किसी चोर ने कन्या को दूध दुहते हुए देख लिया। तब वह क्रोध में आगबबूला हो उसको मारने के लिए दौड़ पड़ी। जब वह गाय के समीप पहुँची, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वहाँ उसे एक शिवलिंग के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आगे चलकर उस राजकुमारी ने उस शिवलिंग के ऊपर एक सुन्दर सा मन्दिर बनवा दिया। वही प्राचीन शिवलिंग आज ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 
3. महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग :- 
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन मे स्थित है। इसकी गिनती १२ महत्वपूर्ण ज्योतिर्लिंग मे होती है।
आकाशे तारकं लिंग पाताले हाटकेश्वरम्।
मृत्युलोके महाकालं लिंगत्रयं नमोस्तुऽते॥
अर्थात जो भगवान् शिव आकाश में तारक शिवलिंग, पाताल में हाटकेश्वर शिवलिंग एवं पृथ्वी पर महाकाल बनकर विराजते हैं, उन्हें हम नमन करते हैं।
स्कन्द पुराण के अवन्त्य खण्ड मे महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का वर्णन किया गया, पौराणिक मान्यतया के अनुसार पचास हजार मंत्रो का जाप करने से जो फल मिलता है, वही पुण्य महाकाल के दर्शन मात्र से मिल जाता है। इस मंदिर मे प्रतिदिन सुबह भस्म आरती होती है, जिस भस्म से आरती की जाती है वह सुबह जले हुऐ ताजा मुर्दे की भस्म होती है। मुर्दे की भस्म से महाकाल का श्रृंगार किया जाता है, यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है।
पुराण मे महाकाल क़े इस स्थान को उज्जयिनी पुरी क़े नाम से जाना जाता था, जो की आजकल उज्जैन नगर क़े नाम प्रसिद्ध है। पुराण मे इस स्थान के अनेक नाम बताये गये है, जैसे कुशस्थली, अवंती, अवंतिका, अवंतिकपुरी। इस क्षेत्र क़ो महाकाल वन का नाम दिया गया है। महाकाल वन मे साठ कोटि सहस्त्र और साठ कोटि शत तीर्थ है, तथा शिवलिंग तो अनगिनत संख्या मे है। पुराण मे वर्णन किया गया है की महाकाल वन परमसुन्दर है वहाँ समस्त कामनाओ और फलो क़ो देनेवाली एक पवित्र पुरी है, जो बड़ी ही मनोरम और कुशस्थली नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ सिद्ध और गन्धर्व निवास करते है और इसी स्थान पर भगवान शिव भी सदा निवास करते है। कल्प के अंत काल मे जब समस्त चराचर प्राणी नष्ट हो जाते है, सभी देवालय, नदी, समुंद्र, सरोबर, उपवन, औषधि, वृक्ष, सूरज, चाँद आदि सब कुछ नष्ट हो जाते है। उस वक्त भगवान शिव सबको लेकर कुशस्थलीपुरी मे मौजूद रहते है। अतः कुशस्थलीपुरी सबके लिये परम हितकारणी है।  यहाँ मनुष्य द्वारा दिया गया थोड़ा सा भी दान अनंत गुना हो जाता है। यहाँ प्रत्येक कल्प मे देवता, औषधि, बीज तथा सम्पूर्ण प्राणियों का पालन होता है। यह स्थान सबका रक्षन (अवन) करने वाला है, इस कारण इस का नाम 'अवन्ती' है।  
4. ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग :-- 
मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले मे नर्मदा नदी के तट पर इंदौर से 77 KM एवं मोरटक्का से 13 KM की दुरी पर भगवान शिव का ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। 
कावेरिका नार्मद्यो: पवित्र समागमे सज्जन तारणाय |
सदैव मंधातत्रपुरे वसंतम ,ओमकारमीशम् शिवयेकमीडे || -- आदि शंकराचार्य
भावार्थ :- कावेरी एवं नर्मदा नदी के पवित्र संगम पर सज्जनों के तारण के लिए, सदा ही मान्धाता की नगरी में विराजमान श्री ओंकारेश्वर जो स्वयंभू हैं वही ज्योतिर्लिंग है। यहाँ पर नर्मदा नदी दो भागो मे विभक्त हो कर मान्धता या शिवपुरी नामक द्बीप का निर्माण करती है। इस द्बीप का आकार ओम अथवा ओमकार के सामान दिखता है।  
इस ज्योतिर्लिंग का विवरण स्कंद पुराण के रेवा खंड मे मिलता है।पुराणों के अनुसार विन्ध्य पर्वत ने भगवान शिव की पार्थिव लिंग रूप में पूजन व तपस्या की थी एवं भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया एवं प्रणव लिंग के रूप में अवतरित हुए, यह भी कहा जाता है की देवताओं की प्रार्थना के पश्चात शिवलिंग 2 भागो में विभक्त हो गया एवं एक भाग ओम्कारेश्वर एवं दूसरा भाग ममलेश्वर कहलाया. इस दोनों ही शिवलिंगो को ज्योतिर्लिंग माना जाता है। इन मन्दिरों के आसपास के इलाके को विष्णुपुरी बताया गया है।      
5. केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग :-
केदारनाथ मन्दिर के नाम से प्रसिद्धि इस मंदिर को केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग कहा जाता है। यह ज्योतिर्लिंग उत्तराखण्ड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है।
नर और नारायण ऋषिओ ने बहुत वर्षों तक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। एक पैर पर खड़े होकर कई हजार वर्षों तक शिव की तपस्या करते रहे। दोनों भाइयो की इस तपस्या से भगवान शिव काफी प्रसन्न हुऐ और उनको प्रत्यक्ष दर्शन दिये और वर मांगने को कहा। भगवान्‌ शिव की यह बात सुनकर दोनों ऋषियों ने उनसे कहा, देवाधिदेव महादेव यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो भक्तों के कल्याण हेतु आप सदा-सदा के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की कृपा करें। आपके यहाँ निवास करने से यह स्थान पावन हो जाएगा। यहाँ आपकी पूजा दर्शन करने वाला मनुष्य अविनाशिनी भक्ति प्राप्त करेगा, अतः आप इसी स्थान पर विराजमान होकर मनुष्यों के कल्याण और उनके उद्धार के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की हमारी प्रार्थना स्वीकार करें। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शिव ने ज्योतिर्लिंग के रूप में वहाँ वास करना स्वीकार कर लिया। इसी स्थान पर नर और नारायण नाम से दो पर्वत भी विराजमान है।  केदार नामक हिमालय-श्रृंग पर स्थित होने के कारण इस ज्योतिर्लिंग को श्री केदारेश्वर-ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना जाता है।
6. भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग :-
यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र राज्य के पुणे से लगभग 110 KM दूर सह्याद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। इस मंदिर के पास से ही भीमा नदी बहती है, जो कृष्णा नदी से मिल जाती है।
प्राचीन शास्त्रों मे वर्णन के अनुसार कुंभकरण को कर्कटी नाम की एक महिला मिली ,उसे देख कर कुंभकरण मोहित हो गया और उससे विवाह कर लिया। विवाह के बाद कुंभकरण लंका लौट आया, लेकिन कर्कटी वही पर्वत पर रह गई। कुछ समय बाद उसको एक पुत्र हुआ जिसका नाम भीम रखा गया। उसके जन्म से ठीक उसके पिता की मृ्त्यु हो चुकी थी। अपनी पिता की मृ्त्यु भगवान राम के हाथों होने की घटना की उसे जानकारी नहीं थी। बाद में जब उसे को इस घटना की जानकारी हुई तो उसने भगवान राम का वध करने की ठान ली। अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने अनेक वर्षो तक कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर उसे ब्रह्मा जी ने विजयी होने का वरदान दिया। वरदान पाने के बाद यह राक्षस अत्याचारी हो गया। वह मनुष्यों के साथ साथ देवी-देवता भी तंग करने लगा। धीरे-धीरे सभी जगह उसके आंतक की चर्चा होने लगी। युद्ध में उसने देवताओं को भी परास्त करना प्रारंभ कर दिया। उसने सभी तरह के पूजा पाठ बंद करवा दिए। अत्यंत परेशान होने के बाद सभी देव भगवान शिव की शरण में गए। भगवान शिव ने सभी को आश्वासन दिलाया कि वे इस का उपाय निकालेंगे। भगवान शिव ने राक्षस भीम युद्ध किया और युद्ध मे राक्षस भीम को मार दिया। भगवान शिव से सभी देवताओ  ने आग्रह किया कि वे इसी स्थान पर शिवलिंग रूप में विराजित हो़ जाए। उनकी इस प्रार्थना को भगवान शिव ने स्वीकार किया और वे भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजित हो गये। इस वजह से इस ज्योतिर्लिंग को भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग नाम से जाना जाने लगा। 
7. काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग :- 
8. त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग :- 
9. बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग :- 
10. नागेश्वर ज्योतिर्लिंग :- 
11. रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग :- 
12. घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग :- 

श्रीमद भगवत गीता को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित किया जाए।

 श्रीमद भगवत गीता को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित किया जाए। 


महापुरुषों को नमन

स्वामी श्रद्धानन्द जी के बलिदान दिवस पर कोटिश: नमन - 23 December 2020
महामना मदन मोहन मालवीय जी की जयंती पर कोटि - कोटि नमन 

Tuesday, December 15, 2020

सरस्वती वंदना :----- वर दे, वीणावादिनि वर दे

सरस्वती वंदना :-----

वर दे, वीणावादिनि वर दे,

प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव

भारत में भर दे,

काट अंध-उर के बंधन-स्तर,

बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर,

कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर,

जगमग जग कर दे,

वर दे, वीणावादिनि वर दे,

प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव

भारत में भर दे

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव

नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव,

नव नभ के नव विहग-वृंद को,

नव पर, नव स्वर दे,

वर दे, वीणावादिनि वर दे, 

वर दे, वीणावादिनि वर दे,

प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव

भारत में भर दे 


प्रार्थना -- इतनी शक्ति हमें देना दाता

प्रार्थना  --

इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमज़ोर हो ना

हम चले नेक रस्ते पे हमसे, भूलकर भी कोई भूल हो ना

दूर अज्ञान के हो अंधेरे, तू हमें ज्ञान की रोशनी दे

हर बुराई से बचते रहें हम, जितनी भी दे भली ज़िन्दगी दे

बैर हो ना किसी का किसी से, भावना मन में बदले की हो ना

हम ना सोचें हमें क्या मिला है, हम ये सोचे किया क्या है अर्पण

फूल खुशियों के बाँटे सभी को, सबका जीवन ही बन जाए मधुबन

अपनी करुणा का जल तू बहा के, कर दे पावन हर एक मन का कोना 


दुनिया का सबसे बहादूर फौजी - राइफलमैन जसवंत सिंह रावत

 दुनिया का सबसे बहादूर फौजी - राइफलमैन जसवंत सिंह रावत